फ्रांस की क्रांति : एक अवलोकन इतिहास से वर्तमान तक
पिछले लेख में हमने फ्रांस की क्रांति को अलग नजरिए से समझने की कोशिश की थी। जिसमे हमने एक सवाल उठाया था कि क्रांति की शुरुआत को यूरोप में बौद्धिक जागरण से बताया जाता है लेकिन यह बौद्धिक जागरण कहाँ से आया १००० वर्ष पुरानी राजतन्त्र व्यवस्था में यह बौद्धिक जागरण क्यों नहीं आया क्या उस पुरानी व्यवस्था में रहने वालों में दिमाग कम था या कुछ अन्य कारण था? यूरोप में एशिया और अफ्रीका जितने प्राकृतिक संसाधन नहीं थे फिर भी वह एशिया और अफ्रीका के देशो से अधिक विकसित कैसे बन पाया ? फ्रांस की क्रांति को यधपि AGE OF ENLIGHMENT (बौद्धिक जागरण ) से बताया जाता है। अगर यह सही है तो फिर एक सवाल यह भी है कि यह बौद्धिक जागरण कहाँ से आया क्या इससे पहले लोगों में बुद्धि की कमी थी अरस्तु प्लेटो सुकरात, मार्टिन लूथर किंग आदि कितने ही विद्वान यूरोप में थे, जिन्होंने तत्कालीन व्यवस्था में तब कोई भी ऐसी बड़ी क्रांति क्यों नहीं हुई ?ऐसे कौन से नए वर्गीय समीकरण बने थे जो इससे पहले नहीं बने थे। इसके लिए हम इस क्रांति का इतिहास से वर्तमान तक विश्व परिदर्शय में समग्रता से अवलोकन करना होगा, ताकि हम इन सवालों का एक उचित जवाब ढूंढ सके, इसके आलावा हमें इस क्रांति में छिपी खुशबु या तत्व को भी प्राप्त कर सकेंगे जो छात्रों ओर सुधि पाठको के ज्ञानवर्धन के लिए सहायक होगी।
इसके लिए हम क्रांति को दो चरणों में बाँट सकते हैं पहला पुनर्जागरण से धर्म सुधार आंदोलन तक दूसरा बौद्धिक जागरण से फ्रांस की क्रांति तक
आधुनिक पश्चिम का उद्भव और रोमन साम्रज्य का पतन –
पुनर्जागरण
14वीं और 17वीं सदी के बीच यूरोप में जो सांस्कृतिक व धार्मिक प्रगति, आंदोलन तथा युद्ध हुए उन्हें ही पुनर्जागरण कहा जाता है। इसके फलस्वरूप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नवीन चेतना आई।
धर्मसुधार आंदोलन
धर्मसुधार आंदोलन से अभिप्राय कैथोलिक ईसाई धर्म में व्याप्त अंधविश्वासी एवं रूढ़िवादिता के विरुद्ध उस आंदोलन से है जो पुनर्जागरण के उत्तरवर्ती काल में ईसाई जगत में हुआ था। यह आंदोलन धर्म के साथ-साथ तत्कालीन राजनीति एवं सामाजिक व्यवस्था से भी अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। इस आदोलन के फलस्वरूप ईसाई धर्म का प्रोटेस्टेंट धर्म एवं कैथोलिक धर्मधर्म में विभाजन हो गया। विभिन्न यूरोपीय देशों ने रोमन कैथोलिक चर्च से संबंध तोड़ लिए एवं वहाँ पृथक चर्च की स्थापना हुई, जिसे आमतौर पर प्रोटेस्टेंट सुधार आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इनके प्रमुख नेता मार्टिन लूथर किंग उभर कर आये थे इतना ही नहीं, कैथोलिक धर्म में सुधार की आवश्यकता को महसूस कर विभिन्न कारगर कदम भी उठाए गए और इस रूप में यह आंदोलन कैथोलिक धर्म सुधार आंदोलन या प्रति धर्म सुधार आंदोलन के नाम से भी लोकप्रिय हुआ।
एन्सिएंट रेजीम
अब हमें प्राचीन यूरोप को भी एक नजर से देखना होगा जिसे एन्सिएंट रेजीम भी कहा जाता है यूरोप में पहले रोम सभ्यता थी उससे पहले ग्रीक सभ्यता थी कहा जाता है की यहाँ एक लोकतांत्रिक व्यवस्था थी ऐसे ही कहा जाता है भारत में भी लिच्वि राज्य में गणतंत्र व्यवस्था थी, अगर इस तरह के लोकतंत्र की हम आज के लोकतंत्र से तुलना करे तो सारी पोल पट्टी खुल जाएगी, वास्तव में यह एक कुलीन तंत्र वयवस्था थी न की आज के आधुनिक लोकत्नत्र जैसी व्यवस्था
रोम सभ्यता से रोमन साम्राज्य की उत्पति हुई ,रोमन साम्राज्य में एक शक्ति शाली राजा होता था, पहले यूरोप में एक रोमन साम्राज्य था, बाद में उसका विघटन हुआ यधपि पूर्वी रोमन साम्राज्य जिसका विघटन पांचवी या ६ठी शताब्दी में हो गया था, बाद में पश्चिमी रोमन साम्राज्य का विघटन हुआ, उसके बाद पवित्र रोमन साम्राज्य का उदय हुआ।
मध्यकालीन तीन शक्तिशाली संस्थाओं का पतन और आधुनिक पश्चिम का उद्भव
आधुनिक पश्चिम का उद्भव और पवित्र रोमन साम्रज्य का पतन या मध्यकालीन तीन शक्तिशाली संस्थाओं जैसे कि सामंतवाद, पवित्र रोमन साम्रज्य और सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था का पतन होता है इसके बारे में जानते हैं :
पवित्र रोमन साम्राज्य
पहले यूरोप में एक रोमन साम्राज्य था, बाद में उसका विघटन हुआ यधपि पूर्वी रोमन साम्राज्य जिसका विघटन पांचवी या ६ठी शताब्दी में हो गया था, बाद में पश्चिमी रोमन साम्राज्य का विघटन हुआ, उसके बाद पवित्र रोमन साम्राज्य का उदय हुआ, इसका उद्देश्य था, इस्लामी शक्तियों से ईसाई धर्म की रक्षा करना, चूँकि मध्य एशिया में उस समय इस्लाम धरम का बोलबाला था, इस लड़ाई में पवित्र रोमन साम्रज्य की फौज मध्य एशिया तक पहुंची, जिससे यूरोप के व्यापार का रास्ता भी एशिया तक खुला जिसमे यूरोप के दूसरी संस्कृति से मिलन हुआ इस व्यापार के कारण ही यूरोप में समृद्धि के रास्ते खुल सके पवित्र रोमन साम्राज्य में एक शक्ति शाली राजा होता था, उसके विघटन के बाद वह कई खंडो में बंट गया जिससे उस शक्तिशाली राजा की शक्ति कमजोर हो गयी अब उसकी स्थिती एक सामंत की तरह हो गयी जिसके नीचे ड्यूक के नीचे बैरल के नीचे नाइट, सब अपने अपने क्षेत्र में शाशन करते थे, अपनी सेना रखते थे, किसानो से टैक्स लेते थे, बाद में कृषि दास रखने लगे। अर्थार्त राजतन्त्र कमजोर हुआ।
सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था
सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था – ईसामसीह ने तो सभी से प्रेम करना सिखाया था, मानव उत्थान के लिए अच्छी बातें बताई थी, लेकिन कालांतर में उनकी मिर्त्यु के बाद लगभग आठवीं सदी में बाद पुरे यूरोप की राजनीती को एक सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था ने अपने कब्जे में लिया था, जिसका मुख्यालय रोम था, किसी भी चर्च पर राज्य के राजा पर कोई अधिकार नहीं थी, वह चर्च अपने को रोम के मुख्यालय के अधीन मानता था, इन लोगों ने यूरोपीय लोगों के राजनितिक और समाजिक जीवन को अपने अधिकार में किया हुआ था, सभी सामाजिक नियम और राजनितिक नियमो पर चर्च की सहमति आवश्यक हुआ करती थी, कोई भी उनकी इच्छा के खिलाफ नहीं जा सकता था। लेकिन पवित्र रोमन साम्रज्य के पतन और धरम सुधार आंदोलन के कारण सर्व व्यापी चर्च व्यवस्था का भी पतन होना शुरू हो गया।
सामंतवादी व्यवस्था
सामंतवादी व्यवस्था : पवित्र रोमन साम्रज्य के विघटन के बाद यूरोप में हर जगह सामंतवादी व्यवस्था थी, वह अपने सैनिक भी रखते थे, बाद में कृषि दास भी रखने लगे वह भूमि पर टैक्स लेते थे और जरुरत पड़ने पर बाहरी आक्रमण के लिए राजा को अपने सैनिक उपलब्ध कराते थे। राजा की बढ़ती शक्ति और सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था के पतन के कारण यह भी कमजोर होने लगे।
मैं ही राष्ट्र हूं
जब राजा ने देखा कि अब सर्व व्यापी चर्च व्यवस्था और सामंतवादी व्यवस्था कमजोर है, रोम के पॉप का मेरे ऊपर कोई नियन्त्र नहीं है, उसने अपने राज्य की एक सीमा बना दी, वही से एक राष्ट्र की उत्पति शुरू हुई किसी इतिहास कार द्वारा लुइ १४ द्वारा कहे शब्द याद कीजिये “मैं ही राष्ट्र हूं ” अब राजा को अपना राज्य चलाने के लिए संसाधनों को आवश्यकता है, वह कहाँ से लाये, क्योंकि अधिकतर यूरोप में प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है।
यूरोप की प्रगति का राज
पहले यूरोप इतना प्राकृतिक संसाधन संपन्न नहीं था, लेकिन १५ वि शताब्दी के अंत में, अमेरिका की खोज होने के बाद उस के सोने चांदी के संसाधन यूरोप को मिल सके, जिससे वह अफ्रीका और एशिया जैसे देशों के साथ अपने व्यापार को बढ़ा सका, लेकिन ऑटोमन तुर्कों ने मध्य एशिया (आज के इराक ईरान अरब इत्यादि ) के रास्ते पर कब्ज़ा कर लिया, जिससे इनका सम्पर्क वहां से टूट गया, अगर यूरोप की कर्मठता या लड़ने की इच्छा हार मान कर बैठ जाती तो शायद उसकी प्रगति रुक जाती, लेकिन यूरोप के कर्मठ और जांबाज लोगों ने हिम्मत नहीं हारी स्पेन इंग्लैंड और पुर्तगाल के राजाओं ने नए नए जहाज बनाये, और उन्हें समुद्र में भेजा ताकि एशिया और अफ्रीका तक जाने के लिए कोई वैकल्पिक मार्ग मिल सके तब वह तो पता ही लग गया था की पृथ्वी गोल है , इसी कड़ी में कोलंबस ने अमेरिका की तथा वास्कोडिमा ने वेस्ट इंडीज की खोज की बाद में भारत तक पहुँचने का भी नया रास्ता मिला।
एशिया और अफ्रीका तक जाने के लिए नए समुद्री मार्ग का पता लगने से यूरोप की प्रगति के रास्ते खुल गए और अब नए व्यापार होने लगे यूरोप में समृद्धि आने लगी और इस समृद्धि में एक नया सम्पति वाला वर्ग उभर कर आया जिसे हम मध्य वर्ग और बुर्जुआ वर्ग कहते हैं.
एशिया और अफ्रीका में प्रगति क्यों नहीं हुई
यधपि एशिया में चीन में बारूद, कागज, नक्शा बनाने की विधि और पानी के जहाजों और रास्तों का अविष्कार पहले से ही हो गया था, एक चीनी नाविक तो अफ्रीका पश्चिमी तट तक पहुंचा भी आगे उनने अधिक कोशिश नहीं की। ठीक ऐसा ही अफ्रीका के साथ हुआ लेकिन यूरोप ने नए विचारों और संसकृतिओं को अपनाया जिस कारण सबसे पहले वहां औधोगिक क्रांति हुई, जिसके परिणाम सवरूप सम्पूर्ण यूरोप का विकास एशिया और अफ्रीका से आगे निकल गया, इस माल को खपाने के लिए नई जगहे ढूढ़नी पड़ी जिसने उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया। एक तरफ अमीर यूरोप और दूसरी तरफ दो पुरातन रूढ़िवादी विचारों की जकड में जकड़े एशिया और अफ्रीका इस उपनिवेशवाद के ऐसे शिकार हुए कि आज तक यूरोप से पिछड़े हुए हैं, नहीं तो प्राकतिक संसाधन और कृषि योग्य भूमि जितनी एशिया और अफ्रीका में है उतनी यूरोप में नहीं है, केवल यूरोप के लोगों की जीवटता और नए विचारों को अपनाने के कारन ही यहाँ इतनी प्रगति हुई, इन्ही प्रगति के कारण यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन हुए, कई अविष्कार हुए, नए नए दर्शन पैदा हुए।
परिवर्तन का ज्ञान
जैसा की हमें पता है कि जिस स्थिति में हम आज हैं उसका सम्बन्ध कहीं न कहीं इतिहास से जुड़ा है, लेकिन हम यह भी जानते हैं की हमारी आज की स्थिति इतिहास से भिन्न है, इसके लिए जरूर ही कुछ परिवर्तन हुए होंगे, इसी परिवर्तन ज्ञान को हम निम्न सूत्रों से समझ सकते हैं।
आर्थिक परिवर्तन – सामाजिक परिवर्तन – वैचारिक परिवर्तन -राजनितिक परिवर्तन यही प्रक्रिया चलती रहती है और समाज में परिवर्तन होता रहता है।
जब कभी आर्थिक परिवर्तन होता है एक वर्ग ऊपर हो जाता है और एक वर्ग नीचे हो जाता है ऐसा होने पर जिस वर्ग की हैसियत बढ़ती है वह सामाजिक परिवर्तन करता है और उसके विचारों में भी परिवर्तन होता है जब विचारों में परिवर्तन होता है तब राजनितिक परिवर्तन होता है। जब राजनितिक परिवर्तन होता है तब आर्थिक परिवर्तन भी होता है। इसके मूल में देखें तो आर्थिक परिवर्तन मुख्य भूमिका में है। यही चक्र चलता रहता है।
नया वर्गीय समीकरण राजा और मध्य वर्ग की दोस्ती
जब राजा को महसूस हुआ कि सामंतवादी व्यवस्था और राज्य की चर्च व्यवस्था उसके राज्य के पर्शाशन में अधिक हस्तक्षेप कर रही है , उसने महत्वकांछी मध्य वर्ग को अपने साथ मिलाया इसी कड़ी में उन्हें नए नए समुद्री मार्ग खोजने के लिए प्रोत्साहित किया और मुक्त व्यपार को बढ़ावा दिया। यधपि पादरी वर्ग इस मध्य वर्ग के मुनाफाखोरी और महाजन और सूदखोरी का विरोध करता था जिससे यह मध्य वर्ग अब उससे भी विद्रोह करने के लिए सज हुआ। अब राजा और मध्य वर्ग के विरोधी हैं चर्च और सामंत। इनकी दोस्ती बढ़ती गयी यहाँ हम एक नया वर्गीय समीकरण देखते हैं।
मध्य वर्ग की मांग का फ्रांस के राजा द्वारा इंकार
ऊपर हमने जाना नए अफ्रीका और एशिया तक जाने के लिए नए समुद्री मार्ग खुलने से और नयी नयी संस्कृतिओं और विचारों के संपर्क में आने से यूरोप का आर्थिक और बौद्धिक विकास होना शुरू हो गया इससे पादरी वर्ग और सामंत वादी वर्ग के समान ही नए मध्य वर्ग या बुर्जुआ वर्ग के पास सम्पति आनी शुरू हो गयी, अब इस नए मध्य वर्ग के पास पैसा है ज्ञान है लेकिन राज्य में वह विशेष अधिकार नहीं है, जो पादरी वर्ग और सामंत वर्ग के पास हैं। ऊपर से यह वर्ग महत्वकांशी भी है, उसने अपने लिए विशेषाधिकार जैसे मुक्त व्यापार और करों में छूट मांगी लेकिन राजा ने इसे देने से इंकार कर दिया। निम्न वर्ग तो हमेशा से ही सोता रहता है उसे फर्क नहीं पड़ता कौन राजा है कौन नहीं क्योंकि उसे अपने खाने कमाने से मतलब है।
राजा ने सामंतो और चर्च के पादरियों से एक नया गठबंधन किया
लेकिन मध्य वर्ग कहा चुप बैठने वाला था, उसने राजा से अपने लिए सामंतो और पादरियों की तरह विशेष अधिकार मांगे, राजा ने इंकार कर दिया, जिससे राजा और मध्य वर्ग के दोस्ताना समीकरण में दरार आ गयी, अब फिर से राजा ने सामंतो और चर्च के पादरियों से एक नया गठबंधन किया। यहाँ हम फिर से एक नया समीकरण देखते हैं।
नया वर्गीय समीकरण मध्य वर्ग और निम्न वर्ग
चूँकि मध्य वर्ग इतना शक्तिशाली नहीं था की वह सीधे राजा चर्च और सामंतो से टकरा सके इसके लिए उसने अपने छोटे भाई को जगाया यानि की वही भोलाभाला निम्न वर्ग (सोये हुए शेर)। हम पुनर्जागरण और बौद्धिक जागरण को देखते हैं वह यही है। प्रिंटिंग प्रेस का अविष्कार हो गया था जगह जगह पम्पलेट से, काफी की दुकानों में, सलूनो में चैराहों में में लोकतंत्र के मूल्यों, मानव अधिकारों, इत्यादि के बारे में फ्रांस के प्रत्येक निम्न वर्ग को नए विचारों से बौद्धिक विकास किया गया। यानि एक और नया वर्गीय समीकरण मध्य वर्ग और निम्न वर्ग जिसे थर्ड एस्टेट कहते हैं अब वह राजा, चर्च तथा सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ हो गया यही फ्रांस की क्रांति का तत्कालीन मुख्य वर्गीय समीकरण था।
निम्न वर्ग मध्य वर्ग की ढाल
जब राजा लुइ १६ ने स्टेट जनरल की बैठक का आयोजन किया था उसमे यह महत्वकांशी मध्य वर्ग ही निम्न वर्ग का प्रतिनिधि बन कर गया था जिनसे बाद में स्वय को नेशनल असेंबली घोषित कर लिया जिसमे उदारवादी निम्न पादरी (फर्स्ट एस्टेट ) वर्ग और सामंत वर्ग (सेकंड एस्टेट ) के लोग भी शामिल हो गए थे, टेनिस कोर्ट में जब इस थर्ड एस्टेट ने शपथ ली थी ” जब तक कोई संविधान नहीं बनेगा तब तक हम यहाँ से नहीं हटेंगे” जिसे इस सम्पत्तिविहीन निम्न वर्ग ने चारो ओर से घेर लिया, राजा की हिम्मत नहीं हुई इस जाबांज पेरिस की भीड़ (सोया हुआ शेर) को तीतर बितर करवा पाता। अगर उस समय निम्न वर्ग इस मध्य वर्ग की ढाल बन कर न खड़ा होता तो क्या फ्रांस की क्रांति हो सकती थी ? कब एक छोटी सी घटना एक क्रांति का रूप ले ले कोई नहीं जानता। लेकिन उस जांबाज पेरिस की भीड़ का भी धन्यवाद करना होगा जिसने अपनी जान पर खेलकर इस क्रांति को सफल बनाया अब यहाँ से क्रांति इस पेरिस की भीड़ निम्न वर्ग (सोये हुए शेर जो अब जाग गया था) के हाथ में आ गयी थी। (अधिक जानकारी के लिए पिछले लेख देख सकते हैं)
सपंति प्राप्त वर्ग को ही मत देने का अधिकार
इस मध्य वर्ग की चालाकी हम देखते हैं, जब नेशनल असेंबली की सरकार बनती है ,इसने केवल सपंति प्राप्त वर्ग को ही मत देने का अधिकार दिया , सम्पत्तिविहीन वर्ग या निम्न वर्ग को मत देना का अधिकार नहीं दिया, हालाँकि इन्होने सामंतवाद का सफाया किया, अपने घोषणा पत्र में मानव अधिकारों की बात तो की लेकिन महिलाओं, निम्न वर्ग की और दासों समस्याओं को नजर अंदाज किया।
जैकोबियन शाशन एक वास्तविक लोकतान्त्रिक और समाजवादी व्यवस्था लेकिन उतना ही कुख्यात
केवल जैकोबियन शाशन को छोड़ दे तो अधिकतर फ्रांस की सत्ता के केंद्र में फ्रांस के क्रांति के दौरान मध्य वर्ग नजर आता है, इसमें नेपोलियन का राज भी शामिल है। जैकोबियन शाशन में हमें लोकतंत्र और सामजवाद की वास्तविक झलक मिलती है, जैसे सार्वभौमिक मताधिकार, काम के मूल्य और घंटे निर्धारित करना, सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा। दास प्रथा का उन्मूलन इत्यादि। जकोबियन शाशन का तानाशाह कुख्यात रोबेसपियरे भी रूसो का अनन्य भक्त था, नेपोलियन ने कहा था अगर रूसो न होता तो फ्रांस की क्रांति नहीं होती (अधिक जानकारी के लिए पिछले ब्लॉग देखे)।
यूरोप के दार्शनिक लेकिन रूसो सबसे अलग
मोंटेस्कू, जॉन लॉक, वोल्तेयर, रेने डेस्करटे, हॉब्स इत्यादि कितने ही दर्शन शास्त्री निकल कर आये जिनके विचारों ने फ्रांस में तथा यूरोप में एक नया बौद्धिक वातावरण तैयार कर दिया, लेकिन ध्यान देने की बात है इनमे से सबने राज्य में जनता के अधिकारों की बात तो की, लेकिन संवैधानिक राजतन्त्र के साथ, निजी सम्पति पर कुछ नहीं कहा, और लोकतंत्र में जनता की प्रत्यक्ष भागीदार अर्थार्त सार्वभौमिक मताधिकार के बारे में कुछ नहीं कहा। कारन यह सभी मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे और इनके पास भी निजी सम्पति थी। साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इन्होने नविन तर्कवादी सोच से पुरे यूरोप खासकर फ्रांस को परिचित कराया इनके कहे हुए वाक्य तब लोगों में खासे प्रसिद्ध थे, और फ्रांस के लोगों को एक नवीन उत्साह से भर देते थे।
रूसो अलबेला दार्शनिक जनसंप्रुभता की सर्वप्रथम बात करने वाला
इसमें केवल रूसो को छोड़ दिया जाये क्योंकि रूसो इसमें अपवाद है, वह वास्तव में १८वी सदी का कार्ल मार्क्स है, जहाँ मार्क्स ने निजी सम्पति के भौतिक स्वरूप पर हमला किया था वहीं रूसो ने इसके मनोवैज्ञानिक स्वरूप पर हमला किया था। वह रूसो ही था, जिसने सर्वप्रथम सत्ता को जनता में निहित बताया या जनसंप्रुभता की बात की थी।,जकोबियन शाशन का कुख्यात तानाशाह रोबेसपियरे भी रूसो का अनन्य भक्त था, नेपोलियन ने कहा था “अगर रूसो न होता तो फ्रांस की क्रांति नहीं होती”। किसी इतिहासकार ने कहा भी है, रूसो ने कहा था “मनुष्य सवतंत्र पैदा हुआ है और सर्वत्र बेड़ियों में जकड़ा हुआ है” और मार्क्स ने कहा “बेड़िया तोड़ो तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है “।
कार्ल मार्क्स
मार्क्सवाद एक ऐसी आग थी पुरे यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया था उसने निजी सम्पति पर सीधा हमला किया था, दुनिया में अगर किसी धर्म के पैगम्बर के बाद कोई आदमी इतना चर्चित हुआ है, जिस पर आज भी शोध होते हैं किताबे लिखी जाती हैं तो वह कार्ल मार्क्स ही है, कहा जाता है उसने फ्रांस की क्रांति सहित सभी छोटी बड़ी क्रांतियो का लम्बे समय तक अध्ययन किया था, यह भी कहते है कि वह २० घंटे लाइब्रेरी में ही रहता था। इस अध्यन के बाद मार्क्स ने दुनिया के मजदूरों से कहा “एक हो जाओ तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है सिवाय अपनी जंजीरो के” उसने भी सोये हुए शेर को जगाया था, और ऐसा जगाया कि रूस की क्रांति हो गयी, पुरे विश्व का पूंजीवादी वर्ग थर थर कांप उठा। इस आग को रोकने के लिए पूंजीवादी वर्ग ने राष्ट्रवाद का पासा फेंका और सभी मजदूरों को राष्ट्र के नाम पर अलग थलग कर दिया (तुम फ्रांस के मजदूर हो तुम जर्मनी के मजदुर हो, तुम ईरान के मजदुर हो, इत्यादि) जबकि मार्क्स का आह्वान तो पूरी दुनिया के मजदूरों के लिए था। लेकिन एक बार भीड़ सड़क पर आ जाये तो क्या उसे वापस घर में भेजा जा सकता है, उसे कुछ तो देना ही पड़ेगा इसके बाद हम देखते हैं कि विश्व के सभी देशो ने अपने यहाँ सार्वभोमिक मताधिकार की घोषणा त्रीव की गयी , मानवाधिकारों के पालन में गंभीरता आयी, काम के घंटे, वेतन, भत्ते और मुआवजे तय किये गए, लोक कल्याण के कार्यों को विश्व की सरकारों ने उचित स्थान दिया इत्यादि। ताकि इस सोये हुए शेर को अपने राष्ट्र तक ही सिमित रखा जा सके।
विशेषाधिकारों पर हमला
ऊपर लिखित विवरण को देखते हुए यही लगता है कि फ्रांस की क्रांति ने विशेषाधिकारों पर हमला किया था, निजी सम्पति पर नहीं क्योंकि फ्रांस की क्रांति का मुख्य बौद्धिक नायक मध्य वर्ग ही था जो खुद सपंति वाला था, जिसने अपने छोटे भाई अर्थार्त निम्न वर्ग (सोये हुए शेर ) को जगाया था, अपने साथ क्रांति करने के लिए। इससे पहले की अमेरिका क्रांति को देखे तो वहां भी क्रांति करने वाला यह महत्वकांशी मध्य वर्ग ही था निम्न वर्ग वहां भी सोया हुआ था, लेकिन उस समय उसके साथ फ्रांस जैसी शक्ति खड़ी थी यधपि फ्रांस ब्रिटैन से बदला लेना चाहता था।
बूझो तो जाने
लोकतान्त्रिक व्यवस्था और समाजवादी व्यवस्था की जननी
यहाँ यह तो कहना ही पड़ेगा फ्रांस की क्रांति जैसे विश्व को दिशा देने वाली घटना ने लोकतंत्र और समाजवाद दोनों के दर्शन से संसार को परिचित कराया, राज्य में रहने वाले को राजा की प्रजा (निजी सम्पति ) से नागरिक (राज्य की सम्पति) का सम्मानजनक दर्जा दिया। इसका असर इतना था कि अमेरीका ने सबसे पहले अपना लिखित संविधान बनाया, उसके बाद सभी देशो ने चाहे वह राजतन्त्र हो या लोकतंत्र सभी ने, अपना एक लिखित संविधान बनाया। आज विश्व की मुख्य शक्ति अमेरीका लोकतंत्र व्यवस्था वाला पूंजीवादी देश जो कि समाजवाद को घोर शत्रु रहा, वहां हम सबसे अधिक समाजवादी व्यवस्था देखते हैं, दूसरी ओर चीन और रूस जैसे साम्यवादी देश अपने यहाँ लोकतंत्र के मूल्यों और पूंजीवाद से बच नहीं सके हैं, क्या यह एक नए वर्गीय समीकरण की ओर इशारा करता है, अथवा फिर दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं, पाठक कमैंट्स में जरूर बताये।
नेपोलियन ने कहा था “एक चित्र सौ शब्दों के बराबर होता है” फ्रांस की क्रांति की नीचे दी गयी एक पेंटिंग, जो आप कई जगह देखते हैं ध्यान से निहारे,यह पेटिंग किस वर्ग के हिंसात्मक विद्रोह की ओर इशारा करती है चर्च वर्ग,सामंत वर्ग, मध्य वर्ग या निम्न वर्ग :

यह एक सारगर्भित और तार्किक लेख है इसे समझने के लिए पाठको से अनुरोध है फ्रांस की क्रांति के सभी पिछले लेख जरूर देखे तभी वह इस लेख को समझ पाएंगे। इससे पिछले लेख के लिए लिंक पर जाये। https://padhailelo.com/french-revoluation-an-attitude/
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