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बड़ा व्यापारी

                                                                                          ⧪ बड़ा व्यापारी ⧪

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फार्मेसी कॉलेज

प्रधानचार्य आज सभी उत्र्तीण छात्रों को आज प्रमाण पत्र दे रहे थे, सभी छात्र बहुत खुश थे. फार्मेसी कॉलेज के प्रागण में बड़ा शोर मच रहा था. सभी छात्रों ने अपने अपने विचार व्यक्त किये, सभी देश सेवा का वादा कर रहे थे. मानव सेवा हमारा प्रथम धर्म होगा, हम अपनी काबिलियत का उपयोग मानव के  दुखो को दूर करने में करेंगे इत्यादि.

अंत में प्रधानचार्य का भाषण शुरू हुआ उनने कहा मैं सभी छात्रों के उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए उन्हें प्रमाण पत्र प्रदान करता हूं. फार्मेसी विद्या का उद्देश्य मानव सेवा के लिए हुआ था. पर मुझे दुःख के साथ कहना पढ रहा है की आज फारमेसी विद्या पैसा बनानेका या  एक डर का व्यवसाय मात्र बनकर रह गयी है. इसने पूरे मेडिकल साइंस को अपने कब्जे में ले लिया है. साथ ही भारत की अन्य इलाज पद्धति जैसे होमियोपैथी, आयुर्वेदा,सिद्धा, यूनानी को बहुत पीछे कर दिया है. सरकारी तंत्र यद्यपि इन पद्धतियों को सहारा दे रहा है पर अभी इसमें बहुत काम होना है. 

मै यही कामना करता हूं की आप सभी अपने अपने क्षेत्रो में अपना नाम करेंगे कोई बड़ा व्यापारी बनेगा. कोई नौकरी में अपना नाम करेगा पर किसी क्षेत्र में विवेक का इस्तेमाल करना मत भूलना, सभी  छात्र इंतज़ार में थे की कब यह बूढ़ा जायेगा, हमें हमारे प्रमाण पत्र मिलिंगे।

दो दोस्त

उसी  कॉलेज के हॉल में दो दोस्त भी बैठे थे रवि एवं वैभव, वैभव एक स्वछंद विचारो का, दुनिया के साथ चलने वाला, महत्वकांशी, अवसरवादी, हमेशा आकाश की ओर नज़रे टिकाने वाला था रवि ठीक इसके विपरीत  संकोची, मितव्ययी, संतोषी, जमीं पर देख कर चलने वाला, विनम्र  था. वह भी अपंने अपने उज्जवल भविष्य के सपने बुन रहे थे. आखिर में प्रधानाचार्य ने सबको उनके प्रमाण पत्र दे कर विदा किया.

दोनों ने नौकरी में जाने के उल्टे व्यवसाय में जाने की सोची. थोड़े पर्यासो के बाद एक छोटे से बाजार में किराये पर दुकाने ले ली. दोनों ने अंग्रेजी दवाइयों का कारोबार शुरू कर दिया, काम चलने लगा, दोनों ने गृहस्थ  जीवन में प्रवेश किया. दोनों के यहाँ दो दो बच्चे जन्मे, रवि के यहाँ विवेक और मुन्नी वैभव के यहां मोहित और आकांशा, बच्चे बढे हुए विद्यालय जाने लगे.

व्यवसाय एक था तरीका जुदा

व्यवसाय एक था तरीका जुदा, हवा के साथ न बहो तो रास्ता बड़ा कठिन हो जाता है. दुनियादारी भी हवा के साथ चलने वालो को ही सफल मानती है.  इतिहास पर दृष्टि डाले तो उन्ही का नाम दर्ज़ है जिनहोने दुनिया की परवाह किये बिना अपना कार्य अपनी आत्मा की आवाज सुनकर किया है

बेशक कुछ अनजाने नायको का नाम इतिहास में भी नजर नहीं  आता, जिसके वह हक़दार थे. कारण जो भी  हो पर इससे उनके किये पुरुषार्थ की महत्ता  कम नहीं हो जाती, रवि का व्ययवसाय का तरीका भी आत्मा की आवाज के अधिक करीब था।

डाक्टर ने तो हमें कुछ नहीं बताया

दुनियादारी के साथ न चलो तो आप सबसे पीछे खड़े दिखोगे, रवि अपने  खोखले आदर्शो  के साथ अपना व्यापर करता गरीब, मजबूरो को खरीद मूल्य में और कभी कभी तो मुफ्त में दवाइयाँ दे देता था. कई चालक आदमी उसके इस जज्बे  का फायदा भी उठाते थे. गरीबी का ढोंग दिखाकर हजारो रूपये की दवाइया ले जाते थे और जो  पैसे चुकाकर दवाई लेते तो वह इनको उस दवाई के दुष्प्रभाव भी बता देता. जिससे ग्राहक भी उसको शक की नजरो से देखकर सोचते की डाक्टर ने तो हमें कुछ नहीं बताया.

मालिक तुम्हारा भला करे

उसकी इन हरकतों से ग्राहक भी उसके पास जाने से कतराते थे, दुकान से लाभ मिलना कठिन हो गया, लाभ था तो यही कोई कोई मजबूर गरीब उसे आदर से देखते हुए कह देता मालिक तुम्हारा भला करे।

दूसरी ओर, वैभव ने अपनी वाकपटुता एव व्यापारिक योग्यता द्वारा अपने ग्राहक बढ़ा लिए थे. वह हर दवाई का बख़ूबी बखान करता. उससे होने वाले नुकसान में मौन रहत., छोटे मर्ज़ में भी वही दवाई देता जिसमे उसका ज्यादा मुनाफा होता, चाहे उसके दुष्प्रभाव मर्ज़ से अधिक ख़राब हो. उसकी नज़ार ग्राहक की जेब पर रहती.

 आगे पीछे नौकर चाकर घुमते थे

उसने पास के कई डाक्टरों से भी सांठ गांठ कर ली, अब डाक्टर भी वही दवाई लिख कर देते जो वैभव की दुकान में होती बदले में डॉक्टरों को भी उचित इनाम देता, वैभव का व्यापार  दिनों दिन फूलने लगा. उसने एक नइ दुकान और खोल ली, अब वैभव के पास सभी ऐशोआराम की चीजें थी । बच्चो को अग्रेंजी विद्यलायों में पढ़ाने लगा, आगे पीछे नौकर चाकर घुमते थे, परिवार के पास सभी भौतिक सुखो का भरपूर इंतजाम था।

क्यों नहीं तुम सबके साथ चलते हो

उधर रवि के घर में जीवन यापन के जरूरी साधनो का भी अभाव था। सुबह खाते तो रात की चिंता होती । तन ढकने के साधारण वस्त्र थे। बच्चे  सरकारी विद्यालयों में  पढ़ते थे, रवि की पत्नी उसे रोज तोते की तरह दुनिया का पाठ रटाती, दुकान चलाना सीखो  अपने दोस्त से, वह कैसे  तुमसे दिनों दिन आगे तरक्की कर रहा है, क्यों नहीं तुम सबके साथ चलते हो. 

निशब्द और असहाय 

सुलेखा घर की छोटी छोटी जरूरतो की मांग करती, पर रवि हर बार अगली बार कह कर उसकी मांग को टाल देता आये दिन घर में कलह होता. सुलेखा कहती अपने दोस्त को देखो कितनी तरक्की कर चुका है उसके घर में किसी चीज़ की कमी नहीं है हमें कही आश्रम में छोड़ आओ. अगर बच्चो की जिम्मेदारी नहीं उठा सकते तो ग्रहथी क्यों  बनाई. विवेक और मुन्नी अपने पिता को ही गलत मानते और अपनी माँ को सही, रवि निशब्द और असहाय सा खड़ा सा खड़ा रह जाता।

खोखले आदर्श

चाहे अमीरी में बीते या कंगाली में समय कभी रुकता नहीं है.बच्चे अपनी  शिक्षा  प्राप्त कर चुके थे. वैभव का पुत्र मोहित विदेश में एक कंपनी में अच्छे ओहदे पर नौकरी पा चुका था. इसमें उसकी योग्यताओ से ज्यादा उसके पिता के ऊँचे लोगो  से संपर्क थे जबकि विवेक हर जगह असफल ही होता आ रहा था, इसमें भी उसकी योग्यताओ से अधिक उसके पिता के खोखले आदर्श थे

मन का भोजन

मोहित विदेश  जाने वाला था, एक दिन वैभव ने  रवि के पुरे परिवार को खाने पर बुलाया. वैभव का डॉक्टर मित्र दिवाकर भी वहां उपस्थित था, सभी खाने की मेज पर बैठे थे,.एक से एक पकवान सामने आ रहे थे, रवि के बच्चो का ध्यान खाने पर था, ऐसा भोजन कहाँ मिलता था,.

दोनों ने अपनी प्लेटो को पकवानो से भर लिया था, सुलेखा ने बच्चो को इशारा भी किया वह कहाँ मानने वाले थे इतने दिनों बाद तो उनके  मन का भोजन था. पर डॉक्टर वैभव और उसकी पत्नी रेखा उन बच्चो को बढे उपहास की दृष्टि से देख रहे थे। 

अच्छा मुनाफा

खाने पर वैभव भी सुलेखा को समझाने लगा, भाभी रवि को समझाती क्यों नहीं, अगर कहो तो डॉक्टर दिवाकर द्वारा सुझाई दवाइयां दुकान पर रखने लगे तो उसे अच्छा मुनाफा हो सकता है मैं ऐसे कई अधिक मुनाफे वाले दवाई विक्रेताओं को जानता हूं, जिससे इसकी आमदनी भी बढ़ सके.

 रवि बोल पढ़ा जब सस्ती दवाइयो से ही मर्ज़ ठीक हो जाता है तो महंगी दवाई क्यों, मरीज़ की सेहत के साथ मैं नहीं खेल सकता, रवि  गुस्से से वैभव को देखने लगा. रेखा ने बात काटी कहाँ खाने पर भी व्यापार ले कर बैठ गए, सबको खाना परोसने लगी.

पर अब रवि का और सुलेखा का मन खाने में नहीं था, वह जल्दी से घर जाना चाहते थे, सुलेखा अपनी गरीबी छिपाने के लिए, रवि अपने आदर्शो के लिए।

वैभव के दोनों बच्चे, विवेक और मुन्नी को अपना घर दिखाने ले गए, वैभव की बेटी मोहित और आकांशा मुन्नी को अपना महंगा लैपटॉप, ब्रांडेड ड्रेस दिखाने लगी, मोहित भी ब्रांडेड  जूते ड्रेस फ़ोन दिखने लगा, विवेक ओर मुन्नी भी बड़ी ललचाई नजरों सब कुछ देख रहे थे

दुसरो के सामने लज्जित होना पढता है

घर आने पर सुलेखा अपने पति पर बरस पड़ी, तुमसे कुछ नहीं हो सकता. दुकान की पूजा करते रहना कमाना तो तुम्हारे बस में  है नहीं कोई तरीका बताये तो उससे ही उलझ पढ़ो कौन तुम्हारी मदद करेगा.  विवेक भी आज माँ के स्वर में स्वर मिला रहा था, पिताजी आपकी वजह से हमें  दुसरो के सामने लज्जित होना पढता है. अगर आपको व्यापार करना नहीं आता अब से दुकान मैं चलाऊंगा. माँ का भी मौन समर्थन था.

गरीबी अगर अमीरी के सामने आ जाये तो और भी गरीब हो जाती है, आदर्श अमीरी के नौकर बन जाते हैं। रवि चुपचाप मुंह लटकाये वहाँ से चला गया। आज उसे अपनी योग्यता पर संदेह होने लगा था

रवि और विवेक की दुरी

सुबह उठा उसने विवेक से कहा बेटा आज नहीं तो कल तुम्हे दुकान चलनी है, अब से दुकान से जुड़े सभी फैसले तुम्ही लेना, विवेक वैभव के पास गया और दुकान चलाने के गुर सीखने लगा और जल्दी ही उसने  दवाई कम्पनियो की महंगी दवाइया रख ली  जिनमें अच्छा मुनाफा था, डॉक्टरों से सम्पर्क बना लिए डॉक्टरों का भी फायदा विवेक का भी फायदा.

 गरीब मजबूरो को बिना पैसे के दवाई देना बंद कर दिया फायदा दुकान में पैसा आने लगा घर में भी भौतिक सुख आने लगा, पिता की सस्ती दवाइयों को पोटली में बांध कर रख दिया. विवेक अपनी कामयाबी पर फख्र मह्सूस करता.

 रवि और विवेक की दुरी बढ़ने लगी थी, दोनों चुप चाप रहने लगे थे, सुलेखा और मुन्नी भी यह मह्सूस करने लगे थे।

 मेरा पिता तरक्की नहीं कर पाया

दुकान पर कुछ लोग आते, कोई व्यक्ति आम, सत्तू, गेहूं, चावल ले आता किसी के घर में शादी नौकरी लगती या कोई और ख़ुशी होती तो वह अपनी मिठाई या कोई उपहार ले आता, रवि उन्हें बहुत मना करता, फिर भी वह लोग एक हक़ से रख जाते, उस  वक्त उनमे एक उपकार का बदला चुकाने की नियत होती थी जो रवि  जाने अनजाने में कर चुका था, विवेक यह  देखकर उन्हें मुँह बनाने लगत.

उसे लगता यह वोही लोग है जो पिताजी को मुर्ख बनाकर दवाइयों को मुफ्त में लेते होंगे इन की वजह से ही मेरा पिता तरक्की नहीं कर पाया।

मै अपने लिए होमेओपथी दवाई इस्तेमाल करता हूं

एक दिन डॉक्टर दिवाकर दुकान पर आए, उन्होने एक डाक्टर की पर्ची विवेक को थमाई और लीखित दवाइ माँगी, विवेक बोला, यह देवी तो मेरे पास नहीं हे. रवि ने पर्ची हाथ से ले ली, और बंधी पोटलीसे दवाई निकल कर दे दी. डॉक्टर से कहा आप कब से होमियोपैथी पर विशवास करने लगे. डॉक्टर बोलै मै अपने लिए होमेओपथी दवाई इस्तेमाल करता हूं, तो फिर मरीजों को अंग्रेजी दवाइया क्यों देते हों रवि बोला. क़्या बतायें लोग भी अंग्रेजी दवाइयों पर अधिक भरोसा करते हैँ,.

और फिऱ ऊपर का दवाब भी होता हे, रोजी रोटी तो सभी को प्यारी होती हे, ड़ाक्टर दिवाकर बोलकर वहाँ से चला गया. रवि उसकी विवशता समझ रहा था, विवेक भी खेल को समझने की कोशिश कर रहा था।

चमचमाती विदेशी कार

एक दिन दुकान के आगे एक चमचमाती विदेशी कार रुकी, उसमे से एक अंगरक्षक हाथ में बड़ी सी बन्दुक लिए निकला, एक अधेड़ औरत और एक सूट बूट पहने एक जवान युवक भी निकला, रवि और विवेक उन्हें उत्सुकता से देख रहे थे, वह औरत बोली भाईसाहब मुझे पहचाना, रवि ने न में सर हिलाया, वह  बोली एक बार जब मेरे पास दवाइयों के पैसे नहीं  थे तब आपने मुझे कईबार उधार दवाइया दी थी,.

देवता आदमी 

रवि पहचानते हुए बोला याद् आया, आप अपने बीमार बेटे के लिए  दवाई ले जाती थी. पर आप ने तो बाद में पैसे चुका दिए थे., महिला बोली पैसे तो चूका दिए थे, आपकी उस मदद का आज तक मुझ पर क़र्ज़ है, मुझे सभी दवाई दुकानो ने उधIर दवाई देने  से मना कर दिया था. उस समय आपने ही मेरी और मेरे बेटे की मदद की. आज मेरा बेटा मेरे साथ है. यही है मेरा बेटा जवान युवक की और इशारा करके बोली. आज यह बहुत बड़ी कम्पनी का मालिक बन चूका है, बहुत दिन से ज़िद कर रहा था, उस देवता आदमी को देखना है.  जिसने हमारी बुरे वक्त में मदद की थी. 

वह युवक रवि के पैरों में गिर कर बोला, अंकल अगर मै आपके किसी काम आ सकूँ तो आपका बड़ा उपकार होगा मुझ पर.

आदमी ही आदमी के काम आता है

रवि बोला उठो बेटे आदमी ही आदमी के काम आता है, हाँ अगर कोई  काम होगा तो जरुर बताऊंगा, अंकल मैं इसका इंतजार करूंगा अपना पता देकर वह अपनी माँ सहित वहां से चला गया। विवेक को आज अपने पिता पर गर्व हो रहा था।

बड़ा व्यापारी

अगले दिन विवेक ने पिता की सस्ती दवाइया दुकान में सजा दी, और कहने लगा आज से जो दवाई आप आर्डर करेंगे वही दुकान में रखी जाएँगी. कई अंग्रेजी दवाइयों के सेल्समैन को उसने लौटा दिया. रवि उसके बदले व्यव्हार को देख रहा था, पीछे से सुलेखा और मुन्नी गांव का सत्तू बनाकर लेकर आई.  भैया आप तो पिताजी वाली सस्ती दवाइया फिर से रखने लगे आप तो इन दवाइयों से चिढ़ते थे, मुन्नी एक रैक की तरफ देख कर बोली.

 रवि बात काटते हुए  बोला, क्या लेकर आई है, अरे वोही  पिताजी की रिश्वत, जो गरीब लोग दे जाते है, सत्तू है, आप तो पिते नहीं हो, रवि ने झट से सत्तू का बर्तन लिया और चार गिलासों में डाल दिया और सबको देने लगा.

सुलेखा सत्तू पीते हुए कभी सस्ती दवाइयों के रैक को देख रही थी, कभी पिता पुत्र को देख रही थी, पर एक अलोकिक शांति महसूस कर रही थी, जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती, शायद बेटा भी अपने पिता की तरह बड़ा व्यापारी बनने की राह पकड़ चुका था I                                                               

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This Post Has One Comment

  1. Durgesh

    Rona as gaya touching story thanks sir

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