प्रथम गोलमेज सम्मलेन: डॉ अम्बेडकर और श्रीनिवासन का ज्ञापन
अभी हमने चर्चा की थी, प्रथम गोलमेज सम्मलेन की, यह सम्मलेन भारत के भावी संविधान के बारे में राय मशविरे के लिए बुलाया गया था, अगर दूसरे वर्गों के लिए यह महत्वपूर्ण घटना थी तो अछूतों के लिए पिछले २००० वर्ष में घटने वाली एक युगांतकारी घटना थी, इसमें पहली बार भारत की डिप्रेस्ड क्लास को भावी संविधान में हिन्दू से अलग, एक राजनितिक तत्व के रूप में पहचान मिल रही थी, इस डिप्रेस्ड क्लास का डॉ भीमराव अम्बेडकर और दीवान बहादुर श्रीनिवासन उस सम्मलेन में नेतृत्व कर रहे थे. इस सम्मलेन के कार्य को कुल ९ समितिओ में बांटा गया. इन ९ सिमितिओ में सबसे महत्वपूर्ण समिति थी, अल्पसंख्यक समिति जिसको सम्मेलन का सबसे मुश्किल कार्य सौंपा गया था वह था, भारत का साम्प्रदायिक प्रश्न, इस समिति के महत्त्व का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि इसकी अध्यक्षता खुद ब्रिटैन के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामसे मैक्डोनाल्ड कर रहे थे. इस समिति की कार्यवाही का अछूतो के लिए बहुत महत्व था। इसके आलावा डॉ अम्बेडकर कुल ९ में से ८ समितिओ में भारत के संविधान निर्माण में अपन योगदान कर रहे थे, इससे भी आप उनकी योग्यता और विद्वता का अंदाजा लगा सकते हैं.
Please see the link for Dr Ambdkar’s speech at Partham golmage Sammelan; https://padhailelo.com/pratham-golmage-sammelan-me-dr-amdedkar/
दलितों के विशेष सुरक्षा के प्रावधान की मांग
जब प्रथम गोलमेज सम्मलेन के सामने भारत के अन्य वर्ग जैसे मुस्लिम और सिख की राजनितिक मांगे आयी, तब उन्हें वह ठीक प्रकार से पहले से ही जानकारी में थी, सिवाय अछूतो की राजनितिक मांग के, यह इसलिए की १९१९ के भारत शाशन अधिनियम में मुस्लिम और सिख की राजनितिक मांगे शामिल की गयी थी, मुस्लिम और सिख के मामले में उन्हें अब केवल एक आकार और विस्तार करना था, लेकिन अछूतो के मामले में स्थिति अलग थी. जब मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार समिति १९१९ के संविधान या नियम के लिए कार्य कर रही थी, तब उसने अछूतो की समस्या को महसूस तो किया था, लेकिन लेकिन अछूतो की जागरूकता की कमी कहे या तत्कालीन अन्य हिन्दू दवाब समूहों के कारण वह उन्हें सिखों और मुसलमानो की तरह एक अलग राजनितिक पहचान देने में चूक गए थे, एक टोकन के तौर पर अछूतो को विधानमंडलों में नॉमिनेशन की व्यवस्था की गयी थी, और उनके बसहुंख्यक हिन्दुओ द्वारा उन पर अत्याचार और उत्पीड़न की दिशा में इस १९१९ के संविधान में कोई विशेष सुरक्षा के प्रावधान नहीं किये गए थे. बहुसंख्यको के अत्याचार और उत्पीड़न द्वारा अछूतो को सुरक्षित करने के लिए डॉ भीमराव आंबेडकर और दीवान बहादुर श्रीनिवासन ने इस प्रथम गोलमेज सम्मलेन की अल्पसंख्यक समिति को एक मसौदा दिया जिसकी मुख्य बिंदु निम्न हैं :
शर्त १— समान नागरिकता
दलित वर्ग के लोग अपनी वर्तमान अनुवांशिक गुलामी की दशा में बहुसंख्यक शाशन को अपनी सहमति नहीं देंगे, बहुसंख्यक शाशन लागु होने से पहले दलितों को अस्पृश्यता से पूर्णतः मुक्ति मिले, इसे बहुसंख्यको की इच्छा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। दलितों को भी अन्य नागरिको की तरह सभी अधिकार मिलने चाहिए।
अस्पृश्यता को समाप्त करने और सामान नागरिक बहाल करने के लिए निम्नलिखित मौलिक अधिकार को संविधान में दर्ज किया जाये.
” भारत में सभी नागरिक एक समान हैं और सबके नागरिक अधिकार बराबर हैं. वर्तमान समय में कोई भी अधिनियम, कानून, आदेश, व्याख्या या रिवाज, जो किसी आदमी को दण्डित करता है, असुविधा पहुंचाता है, अयोग्य करार देता है, या पक्षपात करता है, तो उसे नया सविंधान लागु होते ही समाप्त माना जायेगा।
(संयक्त राज्य अमेरिका संविधान संशोधन १४ और आयरलैंड सरकार अधिनियम १९२० , १० और ११ GEO ५ अध्याय ६७ धारा ५(२ ).
वह अमेरिका और आयरलैंड के तत्कालीन संविधान को कोट करते हैं.
भारत सरकार अधिनियम १९१९ की धारा ११० और १११ के तहत अधिकारियों को मिलने वाली छूट समाप्त हो, ब्रिटैन और यूरोप जैसी जिम्मेदारी मिले।
शर्त न २—समान अधिकारों का सवतंत्र उपयोग
दलितों के सामान अधिकारों की घोषणा करना ही काफी नहीं है. यह निश्चित और असंग्दिग्ध है की रूढ़िवादी ताकते समान नागरिकता के अधिकार का उपयोग नहीं करने देगी, बाधा करेंगी, यह अधिकार केवल कागजी न हो, इसलिए इनका हनन करने वालो को दंड देने की व्यवस्था की जाये.
इसके लिए १९१९ अधिनियम भाग ११ जो अपराध प्रक्रिया एवं दंड परिभाषित करता है, उसके साथ निम्नांकित धारा जोड़ी जाये:
(नागरिकता हनन का अपराध )
(क) यदि कोई वयक्ति किसी व्यक्ति को सार्वजानिक वास, लाभ, सुविधा, धर्मशाला में ठहरने के अधिकार, शैक्षिक संस्थाओ में प्रवेश, सड़क, राह, गली, तालाब, कुआँ व् पानी के उपयोग के अन्य स्थान, सार्वजानिक वाहन, भूमि, हवा अथवा पानी, नाट्य ग्रहो अथवा कला व् रंगक्रम से जुड़े अन्य सावजनिक स्थलों के उपयोग से रोकता है, तो उसे अस्पृश्यता के बारे में पहले से चली आ रही शर्तो पर विचार किये बिना, पांच वर्ष तक के कारावास की सजा अथवा जुरमाना अथवा दोनों दी जाएगी।
(ख) दलित वर्गों के लोग अपने अधिकारों का सवतंत्र उपयोग कर सकें, इस मार्ग में रूढिवादिओं की रुकावटें ही उनकी परेशानी का कारन नहीं हैं. दलितों को सबसे अधिक खतरा सामाजिक बहिष्कार से है. रूढिवादिओं के पास सबसे खतरनाक अधिकार यही है, जिसके बल पर वह दलितों को वह सब कुछ करने से रोकते हैं जो उन्हें पसंद नहीं है, बहिष्कार का हथियार कब और कैसे इस्तेमाल किया जाता है, इसका पूरा ब्यौरा उस समिति की रिपोर्ट में है जिसे १९२८ में बम्बई सरकार ने गठित किया था, जिसका कार्य बम्बई प्रेसीडेंसी के दलित वर्गों और आदिवासीओ की आर्थिक समाजिक और शैक्षिक स्थिति का पता लगाना था, जिसकी मुख्य सारांश निम्न हैं :
सामाजिक बहिष्कार एक प्रभावी हथियार
समाज में दलित वर्ग अपने नागरिक अधिकारों का उपयोग बिना किसी बाधा के कर सकें, इसके लिए हमने कई उपाय सुझाएँ हैं, लेकिन हमें आशंका है आने वाले समय में दलितों के लिए कई बाधा उत्पन्न होंगी, सबसे पहले तो यही डर है, रूढ़िवादी लोग खुली हिंसा पर न उतर आये, हमें याद रखना होगा की हर गांव में दलितों का एक छोटा सा वर्ग रहता है, और बहुसंख्यक आबादी रूढिवादीओ की है, यह दलितों को कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाने देंगे जिससे रूढिवादीओ की सामाजिक हैसियत और उनके हित प्रभावित होते हो, वैसे दलितों के खिलाफ हिंसा का रास्ता अपनाने से यह लोग थोड़ा कानून पुलिस और मुकदमे से डरेंगे।
दलितों की दूसरी बड़ी बाधा उनकी अपनी आर्थिक स्थिति है, इनमे से अधिकतर जमीदारों के यहाँ बंटाई पर खेती करते है, कुछ खेतिहर मजदुर हैं और बाकि लोग जमींदारों के यहाँ मजदूरी करके बदले में मिले भोजन व् अनाज से अपना पेट पालते हैं. रूढ़िवादी जमीदारों की आर्थिक हैसियत ही इनका सबसे बड़ा हथियार है, जिसके बल पर यह दलितों उत्पीड़न करते हैं और उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित रखते हैं, जब भी दलित अपने अधिकारों की आवाज उठाते हैं उन्हें खेत से बेदखल कर दिया जाता है, मजदूरी करने से रोक दिया जाता है, गांव की चोकीदारी करने से भी रोक दिय जाता है. यह इतना सुनियोजित होता है की दलितों के लिए गांव के सार्जनिक रस्ते बंद कर दिए जाते हैं, बनिए उन्हें सौदा देने से इंकार कर देते हैं, गांव के साँझा कुएं से पानी नहीं लेने दिया जाता, कभी कभी तो मामूली सी बात पर सामाजिक बहिष्कार होता है जैसे किसी दलित ने जनेऊ पहन लिया, अच्छे कपडे या गहने पहन लिए, दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर गांव के आम रास्ते पर चले.
हमें नहीं पता की दलितों का दमन करने के लिए सामाजिक बहिष्कार से प्रभावी हथियार भी बनाया जा सकता है, इसके आगे तो खुली हिंसा का तरीका भी निरथर्क है क्योंकि इसके बहुत ही दूरगामी और भयंकर परिणाम होते हैं. यह एक अत्यंत भयंकर हथियार इसलिए है, क्योंकि सम्पर्क की सवतंत्रता के सिद्धांत के अनुरूप इसे एक क़ानूनी तरीका माना गया है. अगर हमें दलितों का उत्थान करना है, तो हमें बहुसंख्यको के इस अत्याचार को हर कीमत पर रोकना होगा।
दलितों का मानना है की सामाजिक बहिष्कार की इस कुरीति से उन्हें तभी छूटकरा मिलेगा, जब इसे दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा जायेगा, अतः भारत सरकार अधिनियम १९१९ भाग ११ में निम्न धारा को जोड़ा जाये।
(क) एक व्यक्ति यदि दूसरे वयक्ति की जमीं या मकान किराये या पट्टे पर देने, उसके साथ व्यापर करने कोई अन्य काम करने से मना करता है, जिसे सामान्य स्थितिओं में वह करता तो इसे बहिस्कार माना जाएगा।
(ख )समाज में प्रचलित ऐसे सामाजिक व्यावहारिक अथवा व्यापारिक सम्बन्ध रखने से जो संविधान में सर्ज मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते, आपत्ति व्यक्त करता है, अथवा
(ग )दूसरे व्यक्ति के विधिक अधिकारों के उपयोग मे बाधाएं खड़ी करता है, रोकने की कोशिश करता है, हस्तक्षेप करता है.
बहिष्कार के लिए दंड
(1)अगर कोई व्यक्ति बहिष्कार करता है, उसे जुरमाना अथवा सात वर्ष की सजा अथवा दोनों दंड दिए जाये .
अपवाद
अदालत अगर इस बात से संतुष्ट हो की, यह काम उस व्यक्ति ने यह कार्य किसी व्यक्ति के उकसाने, या उसकी सांठ गांठ या किसी सडयंत्र या किसी सामूहिक समझौते के तहत नहीं किया है, तो कृत्य धारा के तहत अपराध न माना जाये।
बहिष्कार के लिए उकसाने अथवा प्रोत्साहित करने के लिए दंड
पांच वर्ष के लिए कैद या जुरमाना
स्पष्टीकरण
इस धारा के तहत अपराध हुआ है, यह मानने के लिए प्रभावित व्यक्ति का नाम या वर्ग इंगित होना जरुरी नहीं अगर व्यक्ति अथवा वर्ग प्रभावित हो तो उसे अपराध माना जायेगा।
बहिष्कार की धमकी के लिए दंड
अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को कानून सम्मत करने से रोकने और गैर क़ानूनी कार्य को करने के लिए जबरन करवाता है, और इन कार्यो को करने या न करने पर बहिष्कार की धमकी देता है उसे पांच वर्ष की कैद और जुर्माना अथवा दोनों का दंड मिलेगा।
अपवाद
(१) श्रमिक विवादों के मामले में (२) सामन्य व्यवयासिक पर्तिस्पर्धा में
शर्त न ३ —-भेदभाव के खिलाफ सरंक्षण
दलित वर्गों को यह आशंका है, भविष्य में जो भी कानून बनाये जायेंगे उनमे दलितों के पार्टी भेदभाव हो सकता है, अत:ऐसे उपाय होने चाहिए जैसी भेदभाव बनाने वाले कानून बनाना असंभव हो जाये जब तक यह सुनिश्चित नहीं होता दलित वर्ग के लोग भविष्य में बहुसंख्यक शाशन को अपनी सहमति नहीं देंगे, संविधान में निम्नांकित बातें दर्ज होनी चाहिए
(१) संविदा का अधिकार और उसके पालन का अधिकार, मुकदमा दायर करने, पक्ष बनने, साक्ष्य देने, उत्ताधिकार पाने, खरीदने, पट्टे पर देने, बेचने, रखने और निजी सम्पति का अधिकार.
(२) नागरिक और सैनिक सेवाओं और शिक्षण संस्थाओ में भर्ती का अधिकार, सरकार विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए शर्ते या प्रतिबंध लगा सकती है.
(३)आवास सार्वजानिक सुविधाओं शिक्षण संस्थानों धर्मशालाओ, सार्वजानिक परिवहन, पानी के विभिन्न सार्वजानिक स्त्रोत एवं आम सार्वजानिक स्थलों इत्यादि का अन्य नागरिको की भांति सामान रूप से इस्तेमाल करने का अधिकार, सरकार उचित कारण से प्रतिबंध लगा सकती है, बशर्ते यह शर्ते सभी नागरिको पर सामान रूप से लागू हो.
(४) सार्वजानिक हित में गठित किसी धर्मार्थ ट्रस्ट का लाभ बिना किसी भेदभाव के पाने का अधिकार। यदि वह किसी धर्म विशेष के लिए गठित है तो इस धर्म के सभी लोगो को बिना किसी भेदभाव के इसका लाभ मिलने का अधिकार.
(५) नागरिको के जीवन और सम्पति की रक्षा के लिए बने कानूनों और क़ानूनी प्रक्रियाओ का अन्य नागरिको की तरह समान रूप से लाभ उठाने का अधिकार, इसमें अश्पृश्यता की कोई पूर्व शर्त या परम्परा आड़े नहीं आनी चाहिए.
शर्त ४ —-विधान मंडल में समुचित प्रतिनिधित्व
दलित वर्ग अपने हितो की रक्षा के लिए विधायिका और कार्यपालिका पर अपना प्रभाव डाल सके, इसके लिए उन्हें पर्याप्त राजनितिक अधिकार मिलने चाहिए इसके लिए चुनाव कानून कानून में निम्न चीजे जोड़ी जानी चाहिए
(१) प्रांतीय और केंद्रीय विधान मंडलो में पर्याप्त प्रतिनिधित्व का अधिकार,
(२ ) अपने ही लोगो को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार,
(३) व्यस्क मताधिकार द्वारा, और शुरू के १० वर्षो के लिए पृथक निर्वाचक मंडल द्वारा, और उसके बाद संयुक्त निर्वाचन मंडलो और आरक्षित सीटों द्वारा, यह बात स्पष्ट करना भी आवशयक है, कि संयुक्त निर्वाचन तभी मान्य होगा जब चुनाव व्यस्क मताधिकार के आधार पर होगा।
नोट : दलितों के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व क्या है? इस बारे में कोई संख्या बताना तब तक संभव नहीं है, जब तक कि यह पता न चल जाये कि, अन्य समुदायों को कितनी सीटें मिल रही हैं, यदि दूसरे समुदायों को दलितों से बेहतर प्रतिनिधित्व दिया जायेगा, तब दलित इसे स्वीकार नहीं करेंगे। वैसे बमबई और मद्रास में उन्हें अन्य समुदायों से अधिक प्रतिनिधित्व तो मिलना ही चाहिए।
शर्त ५ —नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व
सरकारी नौकरियों में ऊँची जाति के अधिकारिओ ने दलितों को बहुत सताया है. अपने अधिकारों और कानून का अपनी जाति के हितो के लिए गलत ढंग से इस्तेमाल किया है. न्याय समानता और विवेक के सिद्धांत की धज्जियां उड़ाई हैं, दलितों का भयावह शोषण किया है. इसे रोकने का एक ही उपाय है, सरकारी नौकरियों पर हिन्दू सवर्णो के एकाधिकार को समाप्त करना। ऐसी पद्धति हो जिसमे भर्ती में दलित समाज समेत अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लोग भी उचित हिस्सा पा सकें। इसके लिए भारत के संविधान में निम्न बातें जोड़ी जाये:
(१ ) भारत में तथा उसके सभी प्रांतो में सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए लोक सेवा आयोग का गठन हो.
(२ )लोक सेवा आयोग के सदस्य को केवल विधान मंडल में प्रस्ताव पास करके ही हटाया जा सके, और उसके सेवा समापन के बाद अन्य किसी सरकारी पद पर न रखा जाये।
(३) लोक सेवा आयोग का यह कर्तव्य होगा
(क) लोगो की भर्ती इस तरह करे, ताकि सभी समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व मिले और
(ख) प्रतिनिधित्व घटने बढ़ने पर वह देखें, कि किस समुदाय को प्राथमिकता देनी चाहिए.
शर्त ६ —पक्षपात अथवा हितों की अनदेखी का निराकरण
दलित जानते हैं कि आज़ादी के बाद सत्ता बहुसंख्यक रूढिवादिओं के हाथ में होगी। दलितों को आशंका है कि वह उनके साथ न्याय नहीं करेंगे, इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाये उन्हें चाहे जितना प्रतिनिधत्व दिया जाये वह सभी विधान मंडलो में अल्पसंख्यक ही रहेंगे। दलित चाहते हैं की संविधान में ऐसी व्यवस्था हो, जिसमे उनके साथ पक्षपात और अनदेखी न हो इसके लिए संविधान में यह जोड़ा जाये :
(१ ) भारत और उसके सभी प्रांतो के विधान मंडल, कार्यपालिकाओं और क़ानूनी मान्यता प्राप्त अन्य संस्थानों की यह जिम्मेदारी होगी कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य सफाई, नौकरी में भर्ती व दलितों के राजनितिक व् सामाजिक उत्थान से सम्बन्ध अन्य मामलों में भेदभाव रहित भागीदारी के लिए प्रावधान बनायें।(ब्रिटिश उत्तरी अमेरिका अधिनियम १८६७ धारा ९३ )
इस धारा के उललंघन करने पर दलितों को सम्बन्ध प्रांतीय अधिकारी या अधिकारिओ के खिलाफ गवर्नर जनरल इन कौंसिल, के यहाँ अपील करने का अधिकार होगा. यदि कोई केंद्रीय अधिकारी या प्राधिकरण इसका उललंघन करे, तो भारत मंत्री के यहाँ अपील करने का अधिकार हो.
इस मामले में यदि गवर्नर जनरल या भारत मंत्री को महसूस हो, कि प्रांतीय या केंद्रीय अधिकारी ने इस धारा को ठीक से लागू करने के उचित कदम नहीं उठायें हैं, तब गवर्नर जर्नरल या भारत मंत्री खुद इस मामले में आदेश जारी कर सकते हैं, इसके खिलाफ अपील सुनने वाला प्राधिकारी इस आदेश को मानने के लिए बाध्य होगा।
शर्त ७ —-विशेष विभागीय देखभाल
दलितों की वर्तमान दुर्दशा के लिए बहुसंख्यक रूढ़िवादी ही जिम्मेदार हैं. यह किसी भी हालत में दलितों को अपने बराबर नहीं आने देगें। यह कहना ही काफी नहीं है, दलित बहुत गरीब हैं, भूमिहीन हैं, इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए की दलितों की दयनीय आर्थिक स्थिति का कारण यह है की, उनके लिए जीवन यापन के सारे रास्ते बंद हैं और यह सब सामाजिक प्रूवाग्रहो के कारन हैं. यह एक ऐसा तथ्य है जो दलितों को अन्य सामान्य जाति के मजदूरों से अलग करता है. इसके चलते कई बार दलितों और अन्य निचली जातिओ के बीच संघर्ष की नौबत तक आ जाती है. दलितों पर तरह तरह के भयावह अत्याचार किये जाते हैं, दलितों में इतनी क्षमता नहीं है कि, वह अपने लिए बचाव का रास्ता ढूंढ सकें, इन अत्याचारों की पुष्टि के लिए वह मद्रास सरकार राजस्व बोर्ड की रिपोर्ट (५ नवम्बर १८८२ संख्या ७२३) को सलंग्न करते हैं जिसकी मुख्य बातें निम्न हैं :
मद्रास के पेरिया (दलित) पर अत्याचार के तरीके
अत्याचार के अनेक तरीके हैं. मद्रास के पेरिया लोगो द्वारा उनके मालिकों की बात न मानने पर —
ग्राम पंचायत या फौजदारी अदालतों में झूठे मुकदमे दर्ज करना, उनकी बस्तियों के निकट की जमीं को सरकार से पट्टे पर लेना ताकि वह वहां अपने पशु न चरा सकें, या सवर्णो के मंदिर में प्रवेश न कर सके. उनकी जमीं हड़पने के लिए फर्जी नाम दर्ज करना, उनकी झोपड़िया गिराना, उनकी पीडीओं से चली आ रही काश्तकरी से बेदखल करना, उनकी उगाई हुई फसलें काटना अगर वह विरोध करें उल्टा उन्ही पर चोरी और दंगे के मुकदमे दर्ज करना, सादे कागज पर अंगूठा लगवा कर बाद में जो चाहे लिखकर उन्हें सताना, उनके खेतो में पानी को रोकना, ब्याज न चुकाने पर उनकी सम्पति कुर्क करना इत्यादि।
वैसे इस तरह के अत्याचारों के खिलाफ न्याय पाने के लिए दीवानी और फौजदारी अदालतें हैं, लेकिन यह दलितों की पहुँच से बहुत दूर हैं, अदालत में वही जायेगा जिसके पास वकील की फ़ीस होगी, वहां जाने का किराया हो, और लम्बे मुकदमे लड़ने के लिए रोजी रोटी का पक्का इंतजाम हो. दूसरी बात ज्यादातर मामलों में निचली अदालत का फैसला ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इन निचली अदालतों में भ्रस्ट अधिकारी जो जमीदारों की मदद करते हैं, उन्ही के पक्ष में फैसला सुनाते हैं.
ऊपर से नीचे तक प्रशाशन में आरक्षण
प्रशाशन में इनकी पहुंच कितनी है यह बताने की जरुरत नहीं है ऊपर से नीचे तक इन्ही के लोग भरे हैं, इस हालत में दलितों के लिए कोई न्याय की बात करेगा तब यह रूढ़िवादी उसे रुकवाने और निष्प्रभावी करने में कोई कसर न छोड़ेंगे।
इन सभी तथ्यों को देखकर, यह बात तो साफ है कि अगर दलितों को वास्तव में कुछ न्याय दिलाना है तब इसकी दायित्व सरकार को स्वयं लेना होगा, कुछ नीतिया बनानी होंगी उन पर अमल करने के तरीके तय करने होंगे। यह देखना सरकार की जिम्मेदारी होगी की दलित भी औरों की तरह अपने अधिकारों का सवतंत्र उपयोग कर रहा है या नहीं, इसके लिए दलित चाहते हैं की उनके लिए एक अलग विभाग बनाया जाये और भारत शाशन अधिनियम में निम्न धाराएं जोड़ी जाये:
(१)नए संविधान के लागू होते ही भारत सरकार मे दलितो के हितों की रक्षा और उत्थान के लिए एक अलग विभाग की स्थापना हो, जिसका प्रमुख एक मंत्री हो.
(२)वह तब तक इस विभाग का कामकाज देखे जब तक उसे विधान मंडल का विश्वास प्राप्त हो,
(३ )उस मंत्री का काम होगा यह देखना की कहीं भी दलितों के साथ सामाजिक अन्याय, उनका शोषण और उत्पीड़न न हो, इन्हे रोकने के लिए वह प्रभावी कदम उठाएगा।
गवर्नर जनरल को क़ानूनी रूप से निम्न अधिकार होंगे:
(क )दलितों के कल्याण के लिए शिक्षा स्वस्थ्य इत्यादि से सम्बन्ध किसी अधिनियम के तहत प्राप्त अधिकारों या जिम्मेदारिओं को आंशिक या पूरी तरह उस दलित विभाग को सौंप सके.
(ख )प्रत्येक प्रान्त में वह एक दलित कल्याण ब्यूरो बना सकता है, जो मंत्री के अधीन काम करेगा और उसे सहयोग करेगा
शर्त ८—- दलित वर्ग और मंत्रिमंडल
दलितों ने अपने हितो के लिए विधानमंडल में प्रतिनिधित्व माँगा है. सरकार पर अपना प्रभाव डालने के लिए जितना जरुरी यह है, उतना ही जरुरी है, निति निर्धारण में उनकी हिस्सेदारी। यह तभी संभव है जब किसी दलित को मंत्रिमंडल में स्थान मिले। दलितों की यह मांग है की उन्हें भी अन्य अल्पसंख्यक की तरह दलितों का भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए, वह उनका नैतिक अधिकार है। दलितों का यह प्रस्ताव है कि गवर्नर जनरल मंत्रिमंडल में उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करे.
बूझो तो जाने
यह मसौदा ज्ञापन डॉ आंबेडकर और आर श्रीनिवासन द्वारा प्रथम गोलमेज सम्मलेन में, अंग्रेजो के समक्ष अल्पसंख्यक समिति में, दलितों की राजनीतक हित और सामाजिक सुरक्षा हेतु दिया था, बात है १९३० की. इसका मुख्य स्त्रोत है, डॉ अम्बेडकर स्पीच एंड राइटिंग. इस मौसदे में वर्णित दलित समस्याओ, और उनके समाधान के बारे में आज कुछ अपने संविधान में मिलता है, जरा पता लगाए।
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