सभी यह आशा करते थे, श्री गाँधी की अधिक रूचि इस बात में होगी कि इन विचार विमर्शों और बातचीत के जरिये जिस संविधान का निर्माण हो, वह पूर्ण सवराज या स्वाधीनता के लिए हो. वह यह आशा नहीं करते थे की सीटों के बटवारें जैसे गौण विषय के लिए श्री गाँधी की रूचि होगी। लेकिन घटनाओं ने इन आशाओं को झुटला दिया। श्री गाँधी ने तो ब्रिटिश साम्रज्यवाद के विरुद्ध अपना संघर्ष ही समाप्त कर दिया वह भूल गए की वह पूर्ण सवराज वाला संविधान प्राप्त करने का आदेश लेके आये थे.
अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों से लड़ने लगे
उन्होंने इस मुद्दे को तो छोड़ दिया और अन्य अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों से लड़ने लगे, अचरज की बात यह है की उन्होंने अपना गुबार अस्पर्शयों के प्रतिनिधिओं पर निकाला उनके विषेस प्रतिनिधित्व का पुरजोर विरोध किया, वह उनकी मांग पर ध्यान देने के लिए तैयार ही नहीं थे अपितु वह उनकी धृष्ठता से नाराज थे, कैसे वह ऐसी मांगे कर सकते हैं, उनके इस विरोध से समूचा सम्मेलन आस्चर्यचकित हो गया, वह यह समझ ही नहीं पाए श्री गाँधी जैसा वयक्ति जो अछूतों का दोस्त होने का भरम भरता है, वस्तुतः वह उनके हितों का इतना बड़ा शत्रु हो सकता है.श्री गाँधी के मित्र एक दम हक्के बक्के रह गए. श्री गाँधी एक तरफ मुसलमानों और सिखों की मांगो को मानने के लिए तैयार थे, भले ही वह ईसाईयों, यूरोपियों और आंग्ल भारतीय की ऐसी ही मांगो को मानने के लिए वह तैयार नहीं थे पर उनका विरोध भी नहीं करते थे.
श्री गाँधी अस्पर्शयों के अधिकार को ठुकरा सकते हैं
श्री गाँधी के मित्र यह समझ नहीं पाये कि किस आधार पर वह अस्पर्शयों के अधिकार को ठुकरा सकते हैं। अस्पृश्यों के मुकाबिले मुसलमान, सिख, ईसाई यूरोपीय और आंग्ल भारतीय कहीं अधिक संपन्न हैं। मुसलमानों की आर्थिक स्थिति कही अधिक बेहतर है, वह शिक्षा में भी बेहतर हैं, उनका समाज में पर्याप्त सम्मान हैं, अस्पर्श्य शिक्षा में पिछड़े, आर्थिक स्थिति में पिछड़े, निर्धनों में भी निर्धन, और इससे अधिक समाज जिनसे नफरत करता है. मुसलमानो को तो सवतंत्र नागरिक का दर्जा प्राप्त है, अस्पर्श्य तो मूल सुविधाओं से ग्रस्त है, मुसलमान और अन्य पर तो कोई भी सामाजिक अत्याचार नहीं होता और न ही, उनका सामाजिक बहिष्कार होता है, पर अस्पर्शयों पर तो हर रोज ही सामाजिक अत्याचार और बहिष्कार का डंडा बरसाया जाता है.
दर्जे में इस अंतर को ध्यान में रखते हुए इस बारे में कोई संदेह नहीं कि समूचे भारत में ऐसा कोई भी समुदाय नहीं जिसे विशेष सुरक्षा की जरुरत हो, वह केवल अस्पर्शयों का ही वर्ग हो सकता है. जब भी श्री गाँधी के यूरोपीय मित्र उनसे इस विषय में तर्क करते तब वह उत्तेजित हो जाते, इस कारण डॉ आंबेडकर की जानकारी के अनुसार उनके दो सबसे अच्छे मित्रों के साथ उनके संबध में काफी खिंचाव आ गया था.
कोई भी तर्क संगत उत्तर नहीं था
श्री गाँधी के क्रोध का एक बड़ा कारण था की उनके पास कोई भी तर्क संगत उत्तर नहीं था, जो उनके विरोधियों को यह विश्वास दिला सकेकि दलित वगों की मांग का उनका विरोध सच्चा विरोध था, और उनका विरोध दलित वर्गों के सर्वोत्तम हितों पर आधारित था, वह कहीं भी दलित वर्गों के पार्टी अपने विरोध का कोई सुसंगत स्पष्टीकरण नहीं दे सके, लंदन में वह अपने भाषणों में तीन प्रकार के तर्क दे रहे थे, गोलमेज सम्मलेन की संघात्मक सरंचना समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने कहा :
पहला तर्क :अस्पर्शयों के हित साधन का बीड़ा उठाया है
“कांग्रेस ने तो अपनी स्थापना से ही तथाकथित अस्पर्शयों के हित साधन का बीड़ा उठाया है, एक समय कांग्रेस के हर वार्षिक अधिवेशन में सामाजिक सम्मलेन को अपने कार्यक्रम का अंग बनाया था। स्वर्गीय रानाडे ने तो अपनी अनेक गतिविधियों में उसे स्थान दिया था और उसके लिए अपना तन मन धन समर्पित किया था उनकी अध्यक्षता में अस्पर्श्य संबंधी सुधार को प्रमुख स्थान मिला।कांग्रेस ने १९२० में एक बड़ा कदम उठाया, राजनीतिक मंच पर घोषणा पत्र के रूप में अस्पृश्यता निवारण के मसले को स्थान दिया और उसे राजनितिक कार्यकर्म का खास मुद्दा बनाया। जिस तरह कांग्रेस का विचार है कि हिन्दू मुसलमान एकता का अर्थ है कि उसमें सभी वर्गों के बीच एकता आएगी और वह सवराज प्राप्ति के लिए अनिवार्य है ठीक उसी तरह कांग्रेस का विचार है अस्पृश्यता के अभिशाप का निवारण पूर्ण स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए अनिवार्य शर्त है.”
गोलमेज सम्मलेन की अल्पसंख्यक सम्बन्धी उप समिति में श्री गाँधी ने दूसरे तर्क का सहारा लिया और कहा :
दूसरा तर्क : सर्वाधिक निर्मम विभाजन है, डॉ आंबेडकर गुमराह हो गए हैं
“मै दूसरे अल्पसंख्यक वर्गों की मांगो को समझ सकता हूँ, लेकिन अस्पर्श्य वर्ग से उठाई गयी मांग मेरी दृष्टि में सर्वाधिक निर्मम विभाजन है, इसका अर्थ है सनातन जर्जता की घोषणा। मैं भारत की स्वाधीनता प्राप्ति के मूल्यों पर भी अस्पृश्यों के बुनियादी हितों को नहीं बेचूंगा। मैं दावा करता हूं कि मैं स्वयं अस्पर्शयों के विशाल जनसमूह का प्रतिनिधि हूं. यहाँ मैं केवल कांग्रेस का पक्ष ही नहीं बल्कि स्वयं अपना पक्ष प्रस्तुत करता हूं. मेरा दावा है की यदि अस्पृश्यों का कोई जनमत संग्रह होगा, तो वे अपना मत मुझे ही देंगे और मतदान में सबसे ज्यादा वोट मुझे मिलेंगे। मैं भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक जाऊंगा और अस्पृश्यों को बताऊंगा कि प्रथक निर्वाचन मंडल और प्रथक आरक्षण इस जर्जता को मिटाने का मार्ग नहीं है.
यह ग्लानि उनकी नहीं अपितु रूढ़िवादी हिन्दू धर्म की है. यह कमिटी और सारा संसार जान ले कि आज हिन्दू सुधारकों की एक ऐसी संस्था है, जिसने अस्पृश्यता के इस कलंक को मिटाने की शपथ ली है. हम नहीं चाहते कि हमारे रजिस्टर और हमारी जनगणना में अस्पृश्यों को प्रथक वर्ग के रूप में दर्ज किया जाये। यूरोपीय सिख मुसलमान चाहें तो सदा सर्वदा के लिए अलग रूप में रह सकते हैं. क्या अस्पृश्य सदा सर्वदा अस्पृश्य रहेंगे ? अस्पृश्यता जीवित रहे, इससे अधिक तो मैं चाहूंगा कि हिन्दू धर्म ही समाप्त हो जाये। अतः मैं पूरा सम्मान देता हूं डॉ आंबेडकर को, कि वह अस्पृश्यों का उत्थान चाहते हैं. मैं उनकी इस कामना को पूरा सम्मान देता हूं, पर पूर्ण विनम्रता से यह कहता हूं, कि एक महान अन्याय की चक्की में वह पिसे हैं और सम्भवतः जो कटु अनुभव उन्हें हुए है, उनके कारण फिलहाल वह गुमराह हो गए हैं.
प्राणों की बाजी लगाकर भी उसका प्रतिरोध करूँगा
यह कहते हुए मुझे पीड़ा होती है, लेकिन यदि मैं ऐसा न कहूं तो अपने प्राणों के समानप्रिय अस्पृश्यों के हित के प्रति मैं ईमानदार नहीं रहूँगा। समूचे संसार के साम्रज्य के प्रलोभन में भी मैं उनके अधिकारों का सौदा नहीं करूँगा. मैं यह बात पूरी जिम्मेदारी का अहसास करते हुए कह रहा हूँ कि डॉ आंबेडकर का दावा उचित नहीं है कि वह समस्त अस्पृश्यों की वकालत कर रहे हैं. इससे हिन्दू धर्म खंड खंड हो जायेगा, जो मेरे लिए किसी भी प्रकार से संतोष का विषय नहीं हो सकता।
मुझे परवाह नहीं यदि अस्पृश्य का धर्मांतरण इस्लाम या ईसाई धर्म में कर लिया जाये, मैं उसे सहन कर लूंगा। मैं हिन्दू धर्म की यह दुर्दशा सहन नहीं कर सकता कि गाँवो में उसके लिए दो विभाजन हो जाएं। अस्पृश्यों के राजनितिक अधिकारों की जो लोग बात करते हैं, वह भारत को नहीं जानते वह यह नहीं जानते कि आज का भारतीय समाज किस प्रकार बना है। अतः मैं पूर्ण आग्रह के साथ कहना चाहता हूँ की भले ही इसके प्रतिरोध में कोई भी अन्य व्यक्ति मेरा साथ न दे, पर मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उसका प्रतिरोध करूँगा।”
लंदन में फ्रेंड्स हाउस की बैठक में श्री गाँधी ने एक नितांत भिन्न दलील का सहारा लिया। कहा जाता कि उन्होंने कहा :
तीसरा तर्क : डॉ आंबेडकर एक योग्य व्यक्ति हैं, अपना विवेक खो दिया है
मैंने आपके सामने अपने मन का विक्षोभ प्रकट किया है। हो सकता है किआपकी दृष्टि में कांग्रेस अल्पसंख्यको के अधिकारों को बदले में दे डालने के लिए सक्षम न हो। अस्पर्शयों को मैं उतना जानता हूं जितना, उन्हें जानने का दावा कोई कर सकता है। यह तो उनकी हत्या के समान होगी, यदि उनके लिए प्रथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था की जाये। वह फिलहाल उच्च वर्गों के हाथों में हैं, जो उनका पूर्णतः दमन कर सकते हैं और अपनी दया पर आश्रित अस्पृश्यों से बदला ले सकते हैं। मैं ऐसी किसी भी स्थिति को उत्पन्न होने से रोकना चाहता हूँ, और इसके लिए मैं पर्थक निर्वाचन मंडलो का विरोध करूँगा ।
मैं जनता हूँ कि ऐसा कहकर मैं आपके सामने अपनी ग्लानि ही प्रकट कर रहा हूँ, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में, मैं उनके लिए विनाश को कैसे आमंत्रण दे सकता हूँ। मैं उस अपराध का दोषी नहीं बनूँगा। डॉ आंबेडकर एक योग्य व्यक्ति हैं, पर मुझे खेद है इस मसले के बारे में अपना विवेक खो दिया है। मैं इस दावे का खंडन करता हूँ की वह अस्पृश्यों के प्रतिनिधि हैं।
श्री आंबेडकर ने गाँधी जी के प्रत्येक तर्क का अपने पैने और सच्चे तर्कों से लंदन और भारत में खंडन किया।
श्री गाँधी के विरोध का अस्पर्श्य समाज पर भारत के सुदूर इलाकों में गहरा असर
डॉ आंबेडकर की मांगो के प्रति श्री गाँधी के विरोध का अस्पर्श्य समाज पर भारत के सुदूर इलाकों में गहरा असर पड़ा. अखिल भारत डिप्रेस्ड क्लास के सम्मलेन में जिसकी अध्यक्षता श्री राव बहादुर और एम सी राजा कर रहे थे, उन्होंने गुडगाँव में यह घोषणा की “श्री गाँधी का अछूतो का प्रतिनिधि होने, कांग्रेस द्वारा अछूतो की शुरू से ही देखभाल करने, और कांग्रेस का अस्पृश्यता निवारण करने वाले इस दावे की कड़ी निंदा करेते हैं। एम सी राजा ने कहा ” मै भारत की इस अस्पृश्य समिति का अध्यक्ष होने के नाते श्री गाँधी के इस दावे का, मैं खंडन करता हूं , यह कहकर गांधीजी लंदन में अस्पर्शयों के मामले की गलत व्याख्या कर रहे हैं”.
डॉ आंबेडकर की मांगो का समर्थन किया
डिप्रेस्ड क्लास की इस अखिल भारतीय सभा ने डॉ आंबेडकर की मांगो का समर्थन किया, और और यह घोषणा की ” डिप्रेस्ड क्लास ऐसे किसी भी संविधान को स्वीकार नहीं करेगी जिसमें उनके लिए प्रथक निर्वाचन की वयवस्था नहीं होगी। डॉ आंबेडकर को भारत के सुदूर इलाकों से डिप्रेस्ड क्लास के नेताओं और विभिन्न सभाओं से अनगिनत सन्देश भेजे गए जिसमे उनसे श्री गाँधी और कांग्रेस पर बिलकुल भी भरोसा न करने को कहा गया। इस विषय में गाँधी जी और कांग्रेस के विरोध और डॉ आंबेडकर के समर्थन में भारत के कई इलाकों जैसे तिन्नेवेल्ली, रॉबर्टसन (मद्रास )ल्यालपुर, करनाल, चिदंबरम, कालीकट, बनारस, कोल्हापुर, यवतमाल, नागपुर, चंदा, कानपुर ,कैम्पटी ,बेलगाओं ,धारवाड़, नासिक, हुबली, अहमदाबाद, तूतीकोरिन, कोलम्बो इत्यादि जगहों पर कई सभाएं और पब्लिक मीटिंग हुईं।
डिप्रेस क्लास का वास्तविक नेता
डॉ आंबेडकर के समर्थन में भेजे गए मुखर आवाजों से युक्त असंख्य समुद्री तारों (केबलग्राम ) की संख्या ने लंदन में बता दिया की डिप्रेस क्लास का वास्तविक नेता कौन है, यधपि श्री गाँधी को भी समर्थन में कुछ तार मिले पर वह इतने नहीं थे जितने श्री अंबेडकर के समर्थन में थे, जो वह अछूतो के नेता होने के दावे को सत्य सिद्ध करते। डॉ आंबेडकर की इस प्रचार की लड़ाई से श्री गाँधी भी भौंचक्के हो गए, और उनका लंदन में अछूतों के नेता होने का झूठा दावा पूरी तरह उजागर हो गया.
मंदिर प्रवेश आंदोलन
नासिक और गुरवायुर में डिप्रेस्ड क्लास के द्वारा चलाये जा रहे मंदिर प्रवेश आंदोलन ने अछूतों की मांगों को और अधिक बल दिया। नासिक के मंदिर में प्रवेश के लिए दोबारा शुरू किये गए सत्याग्रह ने अछूतों के रूढ़िवादी हिन्दुओं से लड़ाई को और अधिक गति दी. पांच हजार सव्यंसेवी और डॉ आंबेडकर के समर्पित कार्यकर्त्ता जैसे श्री रणखम्बे, पतितपावनदास और उनके विश्वस्त लेफ्टिनेंट देवराओ नाइक रूढिवादिओं से मंदिर में प्रवेश के लिए लड़ रहे रहे थे. इस लड़ाई ने रूढ़िवादी हिन्दुओं और उनके अछूतों के हितैषी होने के दावे के सच को और उजागर कर दिया। यह इतनी शर्मनाक घटना थी खुद हिन्दू महासभा के नेता श्री मुंजे को अपने रूढिवादि हिन्दुओं को लंदन से ही कहना पड़ा ” कृपया अपने लोगो के नागरिक और धार्मिक अधिकारों को न छीने”.
यहाँ यह समझना जरुरी है की नासिक के कालाराम मंदिर के दरवाजे इससे पहले के सत्याग्रह में अछूतों के लिए बंद कर दिए गए थे, अछूत अब दोबारा उसमे घुसने का प्रयास कर रहे थे, और लंदन में श्री गाँधी और कांग्रेस अछूतो’के नेता और हितैषी होने का दावा कर रहे थे, और कह रहे थे अछूत हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग हैं.
डॉ आंबेडकर की आवाज को और बुलंद कर दिया
डॉ आंबेडकर का अपने लोगो से समय से मिले समर्थन से उत्साह बढ़ गया , उन्होंने अपने लोगो को आभार युक्त सन्देश भेजा।नासिक का यह सत्याग्रह एक अदिव्तीय उत्साह और दृण संकलप का परिणाम था. बड़े बड़े जुलुस और सभाये हुईं, बहुत से स्वयं सेवी और उनके नेता गिरफ्तार हुए, उन्होंने बहादुरी से उस जेल और गिरफ्तारी का सामाना किया। इन सभी, डॉ आंबेडकर के समता के पक्षकारो की गिरफ्तारी ने लंदन में डॉ आंबेडकर की आवाज को और बुलंद कर दिया।
राजकोषीय प्रणाली पर चर्चा
श्री गांधी के साथ संघर्ष के बाद डॉ अंबेडकर ने राजकोषीय प्रणाली पर चर्चा में भाग लिया जिसे संघीय सरकार के लिए उप समिति द्वारा घोषित किया गया था.उन्होंने संघीय अदालत में रचना पर एक बहुत ही उत्तेजक और शानदार भाषण दिया, जिसमें श्री जिन्ना, जयकर, और लॉर्ड लोथियन ने भी बहुत रुचि ली और उन्हें अपने कुछ बिंदुओं को स्पष्ट करने के लिए कहा गया।
उनके अत्यधिक कार्य के बावजूद भी डॉ आंबेडकर लंदन में अपने वैक्तिक साक्षत्कार और सवालों के जवाब दे रहे थे, अपने बयान जारी कर रहे थे, और अपने विरोधी विचारों को सटीक जवाब भी दे रहे थे, वह लंदन की विभिन्न संस्थाओं में गोलमेज सम्मलेन में अपने अछूत समस्या के पक्ष के बारे में सबका समाधान भी कर रहे थे. अंतरार्ष्ट्रीय मामलों की संस्था में उनके दिए गए भाषण ने श्री गाँधी के व्यक्तित्व को खासकर अछूतो के नेता होने के दावे को धवस्त कर किया। श्री गाँधी के अछूतो की राजनितिक मान्यता के अत्यधिक विरोध की यह आग डॉ आंबेडकर और श्री गाँधी दोनों के संयुक्त मित्र, मिस मुरियल लेस्टर तक भी पहुंची, जिनके साथ श्री गाँधी लंदन में रुके हुए थे.
श्री गाँधी का अछूतों के उत्थान के लिए के मानवता के आधार पर प्रयास
मिस मुरियल लेस्टर श्री गाँधी और आंबेडकर की एक कॉमन दोस्त थी, उनने दोनों को अपने घर पर एक सुलह के लिए चाय पर बुलाया। यहाँ डॉ आंबेडकर ने यह स्वीकार किया, श्री गाँधी ने अछूतों के उत्थान के लिए और अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए, कई प्रयास किये हैं, पर फिर भी वह मुलरूप में इस सवाल से अलग रहते हैं.
अक्टूबर १९३१ के आखिर में ब्रिटैन में चुनाव हुए और टोरेस सत्ता में आ गए.लेबर सरकार की हार पर उनने कहा की, उनका कार्यक्रम इतना वैज्ञानिक था, कि मजदूर और औसत ब्रिटिश समझ नहीं सकते थे. अपने एक पत्र में डॉ आंबेडकर ने कहा ” जो डिप्रेस्ड क्लास के नेता श्री गांधीजी को समर्थन देते हैं वह यह नहीं जानते कि श्री गाँधी न केवल डिप्रेस्ड क्लास के प्रथक निर्वाचन का विरोध कर रहे हैं, अपितु उनके विशेष प्रतिनिधित्व का भी विरोध कर रहे हैं, नहीं तो यह समस्या बहुत पहले ही हल हो चुकी होती”।
दूसरे गोलमेज सम्मलेन की कार्यवाही और बहस के मुख्य अंश रखे गए हैं, जिनका मुख्य स्त्रोत डॉ आंबेडकर की स्पीच एंड राइटिंग हैं, आशा है पाठकों का ज्ञानवर्धन होगा।
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