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पृथ्वी गति और उसके कुछ स्थलरूप

पृथ्वी और उसके कुछ स्थलरूप 

पृथ्वी के अनेक रूप हैं, कुछ भाग ऊंचे नीचे तथा कुछ भाग समतल हैं, जहाँ हम खड़े  हैं वहां धीरे धीरे  गति हो रही है, पृथ्वी के अंदर लगातार गति हो रही है, इस पृथ्वी की आंतरिक क्रिया (गति) के कारण पृथ्वी की सतह कहीं ऊपर उठ जाती है कहीं नीचे धंस जाती है.

एक अन्य गति पृथ्वी के बहार भी हो रही है जिसे बाह्य प्रकिर्या (गति) कहते हैं पृथ्वी के घिसकर टूटने को अपरदन क्रिया कहे हैं. अपरदन की क्रिया के द्वारा सतह नीची हो जाती है तथा निक्षेपण के द्वारा फिर से इसका निर्माण  होता है, यह दो पक्रियाएँ बहते हुए जल, वायु, तथा बर्फ के द्वारा होती हैं. ऊंचाई के आधार पर इन स्थल स्वरूपों  को पर्वत,  पठार या मैदान कहा जाता है.

पर्वत

पर्वत पृथ्वी की सतह की प्राकर्तिक ऊंचाई है पर्वत का शिखर छोटा तथा आधार चौड़ा होता है. यह अपने आस पास के क्षेत्र से बहुत ऊँचा होता है. कुछ पहाड़ बादलों से भी ऊँचे होते हैं, ऊंचाई पर जाने पर जलवायु ठंडी होती जाती है.

कुछ पर्वतों  पर हमेशा जमी रहने वाली बर्फ की नदियाँ होती हैं  जिन्हें  हिमानी कहते हैं. कुछ पर्वत तो समुद्र के अंदर भी हैं जो हमें दिखाई नहीं देते. कठोर जलवायु होने के कारण पर्वितीय क्षेत्रों में कम लोग निवास करते हैं. यहाँ खड़ी ढाल का धरातल होता है तथा कृषियोग्य भूमि कम पाई जाती है.

पर्वत एक रेखा के क्रम में भो हो सकते हैं जिन्हे श्रृंखला कहा जाता है,. बहुत से पर्वितीय तंत्र समांतर श्रृंखलाओं  के क्रम में होते है जो सैकड़ो  किमी के क्षेत्र में फैले आते हैं; जैसे हिमालय (एशिया), आल्पस(यूरोप) तथा एनडिस (दक्षिण अमेरिका) की पर्वत शृंखलाएँ  हैं,.पर्वतो की ऊंचाई एवं आकार में भिन्नता होती है.

वलित पर्वत (मोड़दार )(fold mountain)

भ्रंशतथ पर्वत  (टूटे हुए )(fault mountain)

ज्वालमुखी पर्वत (volcanic mountain)

हिमालय तथा आल्पस वलित पर्वत हैं जिनकी सतह ऊबड़खाबड़ तथा शिखर शंकवाकर (conical) है. भारत की अरावली विश्व की सबसे पुरानी वलित पर्वत श्रृंखला है. अपरदन की क्रिया के कारन यह श्रृंखला घिस गयी है, उत्तरी अमेरिका के आल्पेसिअन तथा रूस के यूराल पर्वत गोलाकार दिखाई देते हैं एवं इनकी ऊंचाई कम है. ,यह बहुत पुराने वलित पर्वत हैं.

जब बहुत बड़ा भाग टूट जाता है तथा उर्ध्वाकार रूप से विस्थापित हो जाता है, तब भरंशोत्थ पर्वत का निर्माण होता है. ऊपर उठे हुए टुकड़े को उत्खंड  (हॉर्स्ट ) तथा नीचे धंसे हुए खंडो को द्रोणिका भ्रंश (ग्राबेन) कहते हैं. यूरोप की राइन घाटी तथा वास्जेस पर्वत भरंशोत्थ पर्वत तंत्र के उदाहरण है. 

ज्वालामुखी पर्वत ज्वालामुखी क्रियाओं  के कारण बने हैं; जैसे अफ्रीका का माउंट किलिमजारो तथा जापान का फउजियामा पर्वत.

पर्वत बहुत लाभदायक होते हैं, यह जल को संग्रह करके रखते हैं. बहुत सी नदियों  का स्त्रोत पर्वतों  में स्थित हिमानिओ में होता है, जलाशयों का जल लोगो तक पहुंचाया जाता है, इस जल का उपयोग कृषि सिंचाई, पनबिजली में होता है.  नदी घाटियां तथा वेदिकाएं कृषि के लिए उपयुक्त होती हैं. पर्वतों  में अलग अलग प्रकार की वनस्पतियां  तथा जिव जंतु पाए जाते हैं. इन पर्वत वनों  से हमें ईंधन, चारा, आश्रय दूसरे उत्पाद जैसे गोंद, रेजिन इत्यादि प्राप्त होते  हैं, सैलानियों के लिए पर्वत उपयुक्त स्थान है. वह पर्वतों  की यात्रा उनकी प्राकृतिक सुंदरता को देखने के लिए करते है., कई तरह के खेल जैसे -पैराग्लिडिंग , हैंग ग्लैडिंग, रिवर राफ्टिंग तथा स्कीइंग पर्वतो के प्रचलित खेल हैं. 

पठार

पठार उठी हुई सपाट भूमि होती है, यह आस पास के क्षेत्रों से अधिक उठा हुआ होता है,. इसका ऊपरी भाग मेज के सामान होता है, अगर किसी पर्वत की बीच से काटा जाये तो वह पठार जैसे ही दिखेगा. पठारों की ऊंचाई कुछ सौ मीटर से लेकर हजार मीटर तक हो सकती है बस उसकी चोटी पर्वत जैसी न होकर समतल होगी.. यह भी पर्वतों  की तरह नए या पुराने हो सकते हैं. भारत का दक्कन का पठार पुराने पठारों में से एक है, केन्या, तन्जानिआ, तथा युगांडा का पूर्वी अफ्रीका का पठार  एवं ऑस्ट्रेलिया का पश्चिमी पठार इस तरह के उदाहरण हैं,. (तिब्बत का पठार विश्व का सबसे ऊँचा पठार है जिसकी ऊंचाई 4000 से लेकर 6000 मीटर तक है).

पठार बहुत उपयोगी होते हैं, इनमे खनिजों की मात्रा अधिक होती है. इसलिए विश्व में अधिकतर खनन क्षेत्र पठारों  में होते हैं, अफ्रीका का पठार  सोना एवं हीरों के खनन के लिए प्रसिद्ध है. भारत में छोटा नागपुर का पठार में लोहा कोयला तथा मैगनीज़  के बहुत बड़े भंडार पाए जाते हैं. पठारी  क्षेत्रों में बहुत से जलप्रपात होते हैं, क्योंकि यहाँ  नदियाँ ऊंचाई से गिरती हैं (मेज से पानी गिरने की कल्पना करें). भारत में छोटा नागपुर पठार पर स्वर्ण रेखा नदी पर स्थित हुंडरू जलप्रपात , कर्णाटक में जोग जलप्रपात, ऐसे उदाहरण हैं.  लावा पठारों  में काली मिटटी की प्रचुरता होती है, जो उपजाऊ एवं खेती के लिए अच्छी  मानी जाती है, कई पठारों  में रमणीय स्थल होते हैं , जो पयटको को आकर्षित करते हैं.

मैदान

मैदान समतल भूमि के बहुत बड़े भाग होते हैं  जिनकी ऊंचाई ज्यादातर समुद्री तल से 200 मीटर से अधिक नहीं होती. कुछ मैदान काफी समतल होते हैं कुछ उर्मिल (rolling) तथा तरंगित (neecha unha, lahardar)  हो सकते है, ज्यादातर मैदान नदियों तथा उनकी सहायक नदियों के द्वारा बने हैं. क्योंकि नदियाँ  पर्वितीय ढालों  से नीचे की ओर बहती हैं, तथा उन्हें अपरदित (तोडना ya ghisna) कर देती हैं.  वे अपरदित पदार्थों को अपने साथ आगे की ओर ले जाती हैं. अपने साथ ढोये जाने वाले पदार्थो ; जैसे बालू सिल्ट तथा पत्थर को वे घाटियों में निक्षेपित (बिखेरना) कर देती हैं.  इन्ही निक्षेपों से मैदानों का निर्माण होता है. 

मैदान बहुत उपजाऊ होते है क्योंकि यह पर्वतो से लायी गयी निक्षेपों से बने हैं.  यहाँ परिवहन के साधनों  का निर्माण  कारण आसान होता है. इसलिए मैदानों में सबसे अधिक जनसँख्या वाले क्षेत्र होते हैं, नदियों के   बनाये गए कुछ बड़े मैदान एशिया तथा उत्तरी अमेरिका में पाए जाते हैं. एशिया में स्थित भारत में गंगा एवं ब्रह्मपुत्र का मैदान तथा चीन में यांग्त्से नदी का मैदान इसके प्रमुख उदाहरण हैं. यहाँ समतल भूमि के कारण खेती और रहने की सुगमता होती है इसलिए यहाँ जनसंख्या अधिक होती है. भारत में गंगा का मैदान देश में सबसे अधिक जनसँख्या वाला क्षेत्र  है. 

स्थलरूप एवं लोग 

स्थलरूपों की विभिन्नता के अनुरूप ही मानव विभिन्न परकार के जीवन यापन करता है. मैदानी क्षेत्रों में जीवन पर्वतिया क्षेत्रों  की तुलना में सरल होता है. मैदानों में खेती करना, घर बनाना या सड़के बनाना पर्वितीय क्षेत्रो की तुलना में अधिक सरल है. 

हमें पृथ्वी के हर स्थल रूप का (चाहे वह पर्वत हो, पठार हो, या मैदान हो) उपयोग जरुरत के हिसाब तथा उसके प्राकृतिक बनावट को बिना छति पहुंचाए विवेक से करना चाहिए न की लालच के वशीभूत होकर, इस भूमि की प्राकृतिक बनावट को उजाड़कर, ताकि हमारी आने वाली पीड़िया भी सुरक्षीत रह सकें, क्योंकि यह भूमी केवल हमारे ही उपयोग के लिए नहीं है, हमारी आने वाली नस्लों के लिए भी है. 

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